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परमात्म-दर्शन की पिपासा
अधिक लगती है, उसका मन रागद्वेष के द्वन्द्वो, मताग्रहो, पूर्वाग्रहो आदि की और ही अधिक दौडता है, बुद्धि अहकार के पोपण मे ही लगती है, काम-क्रोधलोभ मोह आदि दुर्गुणो की शिकार वन कर आत्मा निर्बल हो जाती है। फिर भी आनन्दघनजी इन घातीपर्वतो की परवाह न करके परमात्मदर्शन के लिए साहसपूर्वक कदम आगे बढाते है, अपनी सारी शक्ति बटोर कर वे चल पडते हैं, या तो कार्य सिद्ध करके छोडूंगा या शरीर छोड़ दंगा , इस प्रकार के दृढसकल्पपूर्वक जब वे दर्शनप्राप्ति के रास्ते पर चल देते है, तो आगे चल कर उन्हे अनुभव होता है कि "अरे । मैं तो अकेला ही चल पडा । मुझे न रास्ते का पता है और न परमात्मा के दर्शन की विधि की जानकारी है , कमे पहुँच पाऊँगा, परमात्मा के निकट ?" अत वह स्वय ही इस कठिनाई को प्रगट करने हैं-'संगू कोई न साय' सेग् का अर्थ होता है-रास्ते का जानकार, रास्ता बताने वाला पथप्रदर्शक । जव अज्ञात देश में कोई व्यक्ति जाता है या अटवी (घोर जगल) के रास्ते से जाता है तो किसी न किसी पथप्रदर्णक-मार्ग के जानकार आदमी को साथ ले लेता है । ताकि वह रास्ता भूले नही, सही सलामत अपने गन्तव्य स्थान पर पहुंच जाए और रास्ते मे डाकुओ, लुटेरो आदि से भी रक्षा हो सके। परमात्मदर्शन का पथ भी बहुत कटकाकीर्ण और अटपटा है । अनजाना आदमी इस पथ पर चलने का साहस करेगा, तो वह कही रास्ता भूल कर परमात्मा के बदले किसी चमत्कारी या प्राणिघातक या स्वार्थसाधक “रागद्वेपपरायण देवी-देवो के चक्कर में फंस जाएगा अथवा परमात्म-दर्शन के नाम से किसी उटपटाग व्यक्ति के दर्शन को ही सच्चा दर्शन मानने लगेगा । उसे परमात्मदर्शन में सफलता नहीं मिलेगी। वास्तव में ऐसे आध्यात्मिक व्या को परमात्मदर्शन के लिए चलना तो स्वय को ही है, उसके बदले दूसरा व्यक्ति चले तो उसे दर्शन नहीं हो सकेंगे । परन्तु कोई सच्चा मार्गदर्शक मिल जाता है, तो उसे रास्ता ढूंढने में कोई दिक्कत नहीं होती और न वह सीधा रास्ता छोट कर या भूल कर उत्पथगामी वनता है। परन्तु श्रीआनन्दघनजी अपनी लाचारी प्रदर्शित करते है कि मैं चला तो था, ऐसे किसी मार्गदर्शक साथी की खोज मे, पर मुझे ऐसा कोई व्यक्ति नही मिला, जो नि स्पृह, निष्पक्ष और नि स्वार्थ हो कर सही-सही मार्गदर्शन कर कर दे, या मुझे उत्पथ पर जाने से बचा ले, जहाँ मैं रास्ता भूल जाऊ,
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