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अध्यात्म-दर्शन
वहाँ मुझे रास्ता बता दे । परन्तु अफसोस है कि ऐगा कोई योग्य मार्गदर्णक गाथी नहीं मिला। अधकना. उत्पयगामी, मगारपोपा, वासनावदक या स्वार्थी मार्गदर्गव जस नजर जाए, पर उनगे मरा काम बनने के बले ज्यादा विमटता , इसलिए मेरी कठिनाई यह है कि मैं अब बिना रो मिनी मार्गदर्शक साथी के बैठा हूँ। मुझे परमात्मदर्णन की बहन ती तमन्ना है, पता नहीं पव पूरी होगी?
इतनी गब कठिनाइयां बता कर अब श्रीआनन्दपनजी परमात्माशंन । अन्य उपायो को निष्फल बताते हुए कहते है
'दर्शन- दर्शन' रटतो जो फिरूं, तो रणरोज-समान । जेहने पिपासा हो अमृतपाननी, किम भांजे विषपान ?"
अभिनन्दन ॥५॥
अर्थ
अगर मै दर्शन-दर्शन को रट लगाता फिर' तो यह मेरा रटन अरण्यरोदन के समान या मेरा वह भ्रमण जंगली रोज के भ्रमण के समान होगा ! भला जिसे प्रभुदर्शनरूपी अमृत पीने की इच्छा हो, उमफी वह प्यास दर्शनशब्द के रटनरूपी जहर से कैसे मिट जायगी ?
भाष्य
दर्शन के रटन से दर्शन की प्यास नहीं मिटती श्रीआनन्दघनजी ने दर्शन की दुर्लभता पर विचार करते हुए पिछन्नी गाथाओ मे अपनी उलझन और खिन्नता प्रगट की है। उन्हें मताग्रहवादियो से परमात्मदर्शन -प्राप्ति दुर्लभ लगती है। इसी तरह तर्कवाद, नयवाद और आगमवाद से भी विवाद के मिवाय और कुछ पल्ले नही पटता नजर आता ! स्वय पुरुषार्थ करने जाय तो उन्हे घातीकर्मस्पी पर्वतो का लांघना दुप्कर लगता है और कदाचित् साहम करके परमात्मदर्शन के पथ पर चल भी पटे, तो भी रास्ते मे अनभिन होने के कारण तथा कोई पथप्रदर्शक (Guide) न होने मे कही भटक जाने का खतरा प्रतीत होता है । परन्तु अन्त में उन्हें एक उपाय सूझा कि मैं 'दर्शन-दर्शन' की रट लगा कर लोगो के सामने अपना विचार प्रगट करू , शायद कोई राबर मिल जाय और दर्शन की मेरी प्यास