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________________ परमात्म-दर्शन की पिपासा ६३ परमात्मदर्शन के विषय मे और क्या-क्या विघ्न हैं, उनका निर्देश करते हुए श्रीआनन्दघनजी अगली गाथा मे कहते है घाती डू गर आडा अतिघणा, तुझ दरिसण जगनाथ । धीठाई करी मारग संचरूं, सेंगू कोई न साथ ॥ अभिनन्दन० ॥४॥ अर्थ हे जगत् के नाथ ! मेरे देव !, आपके यथार्थदर्शन मे रास्ते मे विघ्नकारक घातीकर्मों के अनेक पहाड अड़े खड़े हैं। साहस करके कदाचित् आपके दर्शन पाने के मार्ग पर चल पडू तो भी साथ में चलने वाला कोई रास्ते का जानकार पथप्रदर्शक भी तो नहीं है ! भाष्य परमात्मदर्शन मे बाधक : घातीकर्मपर्वत परमात्मा के यथार्थदर्शन के लिए आत्मा का भी शुद्ध होना आवश्यक है । चेहरा चचल या मलिन होता है तो दर्पण मे ठीक दिखाई नहीं देता, वैसे ही आत्मा मन-वचन-काया के योगो से अस्थिर और कपायो व कर्मों से मलिन होता है तो परमात्मारूपी दर्पण मे यथार्थरूप मे उसके दर्शन नही हो सकते। यही कारण है कि परमात्मदर्शन के लिए सर्वप्रथम आत्मा के गुणो का सीधी घात करने वाले कर्मों (चार घातीकर्मों ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय) को श्रीआनन्दघनजी ने पर्वत के समान बाधक वताए हैं । १. विभिन्न मतो वालो का स्वमत-स्थापना का आग्रह, २ सामान्यरूप से दर्शनप्राप्ति की दुर्लभता, ३ किसी एक निश्चय पर आने की उसमे भी अधिक कठिनता, ४ मत-मद के नशे में चूर मिथ्यात्वान्ध होने के कारण स्वरूपकी अशक्यता, ५ तर्कवाद की जटिलता, ६ नयवाद की दुर्गम्यता, ७ आगम द्वारा दर्शनप्राप्ति मे गुरुगम का अभाव, - ८ सच्चे मार्गदर्शन के अभाव मे झूठे विवाद , इतने प्रभुदर्शनघाती पर्वतो की वात पूर्वोक्त गाथाओ मे श्रीआनन्दघनजी ने की। परन्तु इनसे भी बढकर आत्मगुणघातक ४ मुख्य पर्वत हैं, जो परमात्मा के दर्शन मे रोडे अटकाते हैं। वे एक नही, चार नही, अनेक हैं और ठोस हैं। कर्मों के मुख्यतया दो विभाग किये हैं-घाती और अघाती । घातीकर्म आत्मा के चार मूल अनुजीवी गुणो-ज्ञान, दर्शन, चारित्र
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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