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अध्यात्म-दर्शन
__ वस्तुतत्त्व का बोध तवा पर मच्ची समजावंगा श्रवा गो जब हम परमात्मा का सम्यग्दर्गन पाहते है, तो इसे प्राप्त करने के लिए भी सामन्यनया व्यवहार. नय की दृष्टि से ४ अगो की प्राप्ति आवायरः बताई • (2) तत्त्वज्ञान का मुदृढ परिचय (२) तत्त्वज्ञान या तत्त्वज्ञानी की गवा (B) व्यापनगुदगंनी या वर्जन (दर्शन'घ्राट जीव का मग न करना) और (1) लिगीमगवर्जन (धर्मविरोधी, धर्मान्ध अथवा अधर्मी व्यक्ति के गग का त्याग) गम्यक्त्व के लिए ये चारो शर्ते बहुत ही कठिन होने से सामान्यतया दर्शन को कठिन बताया गया है। अत, निश्चय और व्यवहार दोनो दृष्टियो मे मामा म्प गे वर्णन ही दुर्लभता का प्रतिपादन यथार्थ है ।
दर्शनमोहनीय की नीयग्रन्थी का श्रतनानस्पी पनी छनी से जब भदन हो जाता है, तब आत्मा के मर्वप्रथम दिव्यनयन खुलते है। उनमे सर्वप्रथम जो सामान्यज्ञान होता है कि मैं है, वह है, चे है। उस प्रकार के मान को सामान्यदर्शन है कहा जाता है , जो कि अन्यन्त दुलंग है। शास्त्रीय परिभाषा । मे सामान्यदर्शन को उपशमसम्यक्त्व कहा है, जो अनादि मिथ्यान्य के नष्ट होने पर अनिवृत्तिकरण के अन्तिम दौर में होता है। और उसके आते ही नवंप्रथम अनन्तानुवन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ आदि का उपगमन होता है। जिसे ज्ञान के द्वाग नमस्त पदार्थो का विभिन दृष्टियों, नयो एव हेतुओ से ममतस्प मे विश्लेषण हो गफे तया गम्या निर्णय हो ग, उमे विशेष दर्शन कहते हैं।
विशेपदर्शन सामान्यदर्शन से भी दुल भतर नलिए है कि इसमे रम्नु के तमाम पहनुओ का विभिन दृप्टिकोणी गे विचार और निर्णय करना होता है। जो व्यक्ति साम्प्रदायिक, पाथिक या दार्गनिक कदाग्रह, पूर्वाग्रह या अपने माने हुए मत-पथ या मान्यता को सत्य मानने के मद से ग्रस्त है, जो दूनगे के पास या अन्यत्र सत्य सम्भव हे, इगे कनई देगुना-गुनना भी नहीं चाहता , वह अहकार, अन्धश्रद्धा, साम्प्रदायिक कट्टरता, हृदय में अमत्य - जानते हुए भी सत्य सिद्ध करने का हठ, विवेकचक्षु के प्रयोग से इन्कार इत्यादि अनेक उपाधियो से युक्त है, वह विभिन्न नयो (दृष्टिकोणो), पहलुओ और हेतुओं से वस्तुतत्त्व का या आत्मा का विचार या निर्णय नहीं कर गकता। इस कारण विशेपदर्शन की प्राप्ति दुर्लभतर बताई है। कदाचिन् विशेषदर्शन की प्राप्ति