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________________ परमात्म-दर्शन की पिपासा ८६ हो भी जाय, तो भी आसपास के विरोधी वातावरण के कारण उसके दिल-दिमाग मे यह वात जचनी मुशकिल है कि स्वय के माने हुए मत-पथ-दर्शन के अतिरिक्त अन्यत्र भी सत्य के अंशो की सम्भावना है, अथवा भिन्नभिन्न दृष्टिविन्दुओ से प्रत्येक वस्तुतत्त्व को देखा जा सकता है । इसलिए निर्णय करना या निश्चय करना दर्गन की प्राप्ति मे भी बढ़कर मुश्किल है। इसी कारण सर्वांगसत्यदर्शन की झाकी होना कठिन है। मामान्य और विशेष रूप से दर्शन की दुर्लभता को स्पष्ट करने के अभिप्राय से श्रीआनन्दघनजी एक उदाहरण प्रस्तुत करते है-"मद मे घेर्यो रे अधो केम करे, रविशशिरूपविलेख" जिस प्रकार कोई व्यक्ति स्वय अन्धा हो, फिर शराव आदि नशैली चीज का सेवन करने से वह नशे में चूर हो जाय तो सूर्य और चन्द्रमा के स्वरूप का विश्लेपण करना तो दूर रहा, उनके रूप का अवलोकन भी नहीं कर सकता। उसी प्रकार जो व्यक्ति पहले तो मिथ्यात्त्वरूपी अन्धकार से ग्रस्त हो, मिथ्यात्व से अन्धा हो, फिर वह अपने मत, पथ, सम्प्रदाय या दर्शन के मद ('मेरा ही सच्चा है' के अहकार के नशे) मे डूबा हो तो, वह नयो, हेतुओ आदि द्वारा विभिन्न पहलुओ या दृष्टिकोणो से विशेष प्रकार से परमात्मा के सत्य का दर्शन करना तो दूर रहा, सामान्यरूप से भी उक्त दर्शन को प्राप्त नहीं कर सकता। व्यावहारिक दृष्टि से सोचे तो जिसे दशनमोहनीय के कारण मिथ्यात्त्वदशा से ग्रस्त होने में सामान्यरूप से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नही हुई, उसे शका, काक्षा, विचिकित्सा, मिथ्याप्टि-प्रशसा, मिथ्यादृष्टिमस्तव, इन सम्यक्त्त्व के ५ अतिचारो (गणो) से रहित विशिष्ट परमात्मदर्शन की प्राप्ति केमे हो सकती है? बहुत-मे तथाकथित पण्टित या विद्वान् विभिन्न प्रकार के नयो, हेतुओ, तर्कों या आगमो द्वारा भी परमात्मा का सम्यग्दर्शन प्राप्त करने में समर्थ हो सकते हैं, इस बात का खण्डन करते हुए श्रीआनन्दधनजी अगली गाथा मे कहते हैं- हेतु-विवादे हो चित्त धरी जोइए, अतिदुर्गम नयवाद। आगमवादे हो गुरुगम को नहीं, ए सवलो विषवाद ॥ अभिनन्दन० ॥३॥
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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