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________________ परमात्मा की भावपूजानुलक्षी द्रव्यपूजा २०५ जैसा कि पूर्वोक्त गाथाओ के वर्णन में बताया गया है, दो प्रकार की द्रव्यपूजा प्राथमिक भूमिका वालो के लिए है और वाद .. की दो प्रकार की भावपूजा उत्तरोत्तर उच्चभूमिका वालो के लिए है । इसी बात को ललितविस्तरावृत्ति मे स्पष्टस्प से बताया गया है कि पुप्पपूजा ( अगपूजा ), आमीपपूजा (अग्रपूजा) स्तुतिपूजा (वन्दना, कायोत्सर्ग, स्तुति, स्तव, नामस्मरण, जप, गुणकीर्तन, प्रार्थना एव भावना आदि के जरिये भावपूजा) और प्रतिपत्तिपूजा इन चारो पूजाओ मे क्रमश उत्तर-उत्तर (आगे-आगे) की पूजा अधिक महत्त्वपूर्ण है। देशविरति मे उक्त चारो पूजाएँ होती हैं, सराग-सर्वविरति आदि में स्तुति और प्रतिपत्तिरूप दो पूजाएँ होती है, उपशान्त मोहादि-पूजाकर्ता में प्रतिपत्तिपूजा ही होती है। निष्कर्ष यह है कि द्रव्यपूजा से भावपूजा श्रेष्ठ है, और वही उपादेय है । परमात्मपूजा का मुख्य प्रयोजन आत्मस्वरूप में रमण करना और आत्मशुद्धि करके आत्मा के अनुजीवी गुणो को विकसित करना है, जो भावपूजा के द्वारा ही सिद्ध हो सकता है। इसी कारण श्रीआनन्दधनजी परमात्मपूजा के उद्देोण्य एव फल के सम्बन्ध मे गकेत करते हुए अन्तिम गाथा मे कहते हैं इम पूजा बहुभेद सुरणीने, सुखदायक शुभकरगी रे। भविकजीव करशे ते लेशे, 'आनन्दघन'-पद-धरणी रे॥ सविधि ० ॥८॥ अर्थ इस प्रकार परमात्मपूजा के बहुत-से भेदो को सुन-समझ फर जो भव्यजीव लौकिक और लोकोत्तर सुखदायक शुभकरणी = उत्तम अनुष्ठान (जिनाज्ञावाह्य क्रियाओ का त्याग करके जिनाज्ञायुक्त शुभक्रिया) करेगा, यानी उसे क्रियान्वित करेगा, वह आनन्द के समूहरूप परमपद (मोक्ष) भूमि [मोक्षभूमि सिद्धशिला] प्राप्त करेगा . अथवा मोक्षपद की भूमिका प्राप्त करेगा। पुष्पाऽमीष-स्तुति-प्रतिपत्तिपूजाना यथोत्तर प्राधान्यम् । देवविरती चविधा सराग-सर्वविरत्यादी स्तोत्र-प्रतिपत्तिरूपे द्व । उपशान्तमोहाऽऽदी पूजाकारके प्रतिपत्तिः ॥ १ -ललितविस्तरादि से
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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