________________
५१०
अध्यात्म-दर्शन
का त्याग कर दिया, इसी घटना को ले कर आप मेरे प्रवल निमित्त कारण वने, मेरे उपादान को शुद्ध वनाने मे, उसे जगाने मे आप ही प्रवल कारण बने है। मुझे शुद्ध-आत्मस्वरूप को प्राप्त कराने मे आप निमित्तरूप बने । जब सत्यस्वरूप का दाता वास्तविक निमित्त बन जाता है, तव उसकी हृदय से भक्ति-सेवा करनी चाहिए। इमलिए मैं कार्य-अकर्म या सफलता-निष्फलता का विचार किये बिना ही पूरी शक्ति लगा कर आपको प्रवल निमित्तरूप मान कर आपकी सेवा करने में जुट गई हूँ। आपके चरणो की सेवा कर रही हूं। अत हे करुणासागर | अब आप मुझे मच्चिदानन्दघनरूप मोक्षपद का साम्राज्य दीजिए।
ध्याता राजीमती अपने उपादान को शुद्ध और सर्वोच्च पदारूढ करने के लिए प्रवलनिमित्तरूप परमात्मा (नेमिनाथ प्रभु) को ध्येय मान कर एकाग्रतापूर्वक उन्ही के ध्यान मे तल्लीन हो गई। एकाग्र ध्यान के परिणामस्वरूप उसने प्रभु से पहले मोक्षगमन किया।
इसी तरह मुमुक्ष ध्याता भी ध्येयनिष्ठ बने महात्मा आनन्दधनजी कहते है कि जिस तरह सती राजमती ने मोहभाव से एकदम पलटा खा कर वीतराग परमात्मा के मार्ग का अनुसरण किया, कामभावना से देखने वाली राजीमती आत्मदृष्टि मे स्थिर होकर भव्यातिभव्य आत्मा के रूप मे अमर हो गई। भगवान् नेमिनाथ का एकनिष्ठापूर्वक ध्यान करते-करते वह ध्येयरूप=आत्मरूप तदाकार बन गई। जैसे राजीमती मे एक स्वामिनिष्ठा और वाग्दत्ता का स्वत्व था, और उसी के फलस्वरूप वह नेमिनाथ प्रभु से ५४ दिन पहले मोक्षपद को प्राप्त कर चुकी । इसी तरह मैं (मुमुक्ष साधक) भी दयानिधि नेमिनाथ प्रभु का एकनिष्ठा या एकस्वामिनिष्ठा से ध्यान करता हूं, उनके मार्ग का अनुसरण करता हू और राजीमती की तरह कार्य-अकार्य की परवाह किये विना मैं भी उनका सेवन करता हू । इसलिए मुझे और सब साधको को भी राजीमती की तरह आनन्द के समूहरूप मोक्षपद का राज्य प्रदान करें।
साराश इस समग्र स्तुति मे राजीमती के जीवन में परमात्मप्रीति के तीन मोड आते है, पहले मोड मे वह सासारिक मोहदशा से प्रेरित हो कर घर पर