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ध्येय के साथ ध्याता और ध्यान की एकता
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योग भी सफल होगा । अथवा प्रभु नेमिनाथ नवरसरूपी मुक्ताहार के समान है । भगवान के सान्निध्य से नौ ही रमो का अपूर्व सगम मिलता है, नौ रस ये हैं-- गार, वीर, करण, रोद्र, हाम्य, भयानक, बीभत्स, अद्भुत और गान्त । विरक्त एव वीतराग के लिए ये नौ रस शान्तरम मे परिणत हो जाते हैं।
तात्पर्य यह है कि राजीमती ने मवंविरत माधुधर्म का अगीकार करके यीतराग परमात्मा नेमिनाय वा मागोपागरूप से सर्वतोभावेन हृदय मे धारण कर लिया।
आत्मार्थी एव मुमुक्ष की आत्मा के लिए भी वायचित्तवृत्ति का त्याग करके अन्तर्मुखी बन कर परमात्मा वीतराग के पथ का अनुमरण करना और वीतरागता प्राप्त करना अभीष्ट है, यही मार्ग उपादेय है । अब श्रीआनन्दधनजी इस स्तुति का उपमहार करते हुए कहते है--
करुणारूपी प्रभु भज्यो रे, गण्यो न काज-अकाज, मन । कृपा करी मुझ दीजिए रे, आनन्दधन-पद-राज; मन० ॥१७॥
अर्थ रानीमती प्रभु से अन्तिम प्रार्थना करते हुए कहती है - "फरणारूप (दयामय) प्रभु श्रीनेमिनाय को मैंने भक्ति=आराधना (ध्यानपूर्वक) की है। मैंने ऐसा करने में कार्य (कर्तव्य) कार्य (अपर्तव्य) का विचार नहीं किया। अत दया करके मुझे आप आनन्द के समूह प्रभु का राज्य (मुक्तिधाम) दीजिए।
___ भाष्य
राजीमती (शुद्ध यात्मा) की प्रभु से अन्तिम प्रार्थना महामती राजीमती शुद्धभाव मे आ कर जन्तरात्मा के बोध के कारण परमात्मा श्री नेमिनाय से प्रार्थना करती हुई कहती हैं- "मेरे आत्मज्ञान के प्रबोधक परमात्मन् । मैंने अब आपको पूर्णरूप से परख लिया है। आप करुणा के सागर हैं, क्योकि आपने लोकव्यवहार नौर लोगो की जरा भी परवाह नही की, और अन्त करण से मूक पशुओ पर दया करके तत्काल ससारमात्र
१. किमी किसी प्रति मे 'करुणारूपी' के बदले 'कारणरूपी' शब्द है, वहां
अर्थ होता है, मैने प्रवल निमित्तकारणरूप परमात्मा का सेवन किया है।