________________
७ : श्री सुपाराजिन-स्तुति
अनेक नामों से परमात्मा की वन्दना
(तर्ज-राग सारंग, मल्हार, ललना की देशी) श्रीसुपार्श्वजिन, वदिए सुखसम्पत्तिनो हेतु, ललना। शान्त-सुधारस-जलनिधि, भवसागरमा सेतु, ललना ॥१॥
अर्थ हे अन्तरात्मारूपी ललना ! (सखी!) आओ, हम श्रीयुत सुपार्श्वनाथ जिन (सातवें तीर्थकर परमात्मा को वन्दन करें, क्योकि वे समस्त प्रकार के सुख और सम्पत्ति के कारण है, अपने स्वरप मे स्थिर शान्त अमृतरस के समुद्र हैं और संसारसागर को पार करने मे हमारे लिए पुल के समान है।
भाष्य
परमात्मा को वन्दना क्यो ? पूर्वोक्त स्तुति मे श्रीआनन्दघनजी ने परमात्मा और आत्मा के वीन अन्तर के कारण और उनको मिटाने के लिए निवारणोपाय वनाए थे। कर्मबन्धनरूप उन कारणो को मिटाने के लिए तथा परमात्मा और आत्मा के वीन सामीप्य स्थापित करने के लिए इस स्तुति मे परमात्म-वन्दना आवग्यक बताई है । श्री सुपाश्वनाथ वीतराग परमात्मा के माध्यम ने इसमे परमात्म-वन्दना का रहस्य बताते हए तीन वाते उन्होंने अभिव्यक्त की है- परमात्मवन्दना पया है ? और किस नाम से, किस स्वरूप वाले परमात्मा को वन्दना की जाय ।
सर्वप्रथम परमात्मवन्दना क्यो की जाय ? इसका रहस्योद्घाटन श्रीआनन्दघनजी अन्तरात्मास्पी ललना (स्त्री-सखी) को सम्बोधित करते हुए कहते हैंहे अन्तरात्मा-सखी, परमात्मा के पास तो अनन्तनान-दर्शन, अनन्त अव्यावाध मुख और अनन्तवीर्य सुरक्षित है, परन्तु मोह, अज्ञान जौर अशुभकर्मों के कारण मेरा ज्ञानधन अभी तक लुट रहा है । मैं मोहबण एव असातावेदनीय के परि