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अनेक नामो से परमात्मा की वन्दना
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णामस्वस्प जगत् के तथा जन्ममरण के अनेक दु खो से ओतप्रोत रहा, अभी तक मैंने इनने-इतने भयंकर दुख सहे, फिर भी ससार-समुद्र के किनारे का पता नही लग रहा है और नये-नये अनेको दुख और आ रहे हैं । तथा मैंने महिकर्मवश तथा वीर्यान्तरायकर्म के फलस्वरूप अपनी शक्ति आत्मा के शुद्धस्वरूप को देखने, जानने और उसमे रमण करने मे नही लगाई, यानी ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना मे अपनी शक्ति न लगा सका, और प्राय' विपयो के पोपण बढाने मे और राग-द्वेप-मोह आदि की लीलाएँ करने मे ही लगाई । अत सुबुद्धिरूपी सखी! अव तू इन सवसे हट कर वीतराग परमात्मा के के वन्दन करने मे लग जा।
क्योकि प्रथम तो परमात्मा का नाम सुपार्श्व है । लोक्कि लोग लोहे से सोना बनाने के लिए पारसमणि का उपयोग करते हैं, परन्तु हमे तो अपनी आत्मा, जो विपय-कपायो मे, रागद्वे प मे रत हो कर वर्तमान मे जग लगे हुए लोहे के समान वन रही है, उसे सोना बनाना है, इसके लिए सुपार्श्व नामक चेतनपार्श्वमणि का अवलम्बन लेना चाहिए। वन्दना के रूप मे इनके पास आने से यानी इनके अभिमुख होने से आत्मा मे खोई हुई या सोई हुई ज्ञानशक्ति एव दर्शनशक्ति प्रकट हो सकती है । वह पारस तो लोहे के साथ स्पर्श होने पर केवल सोना वनाता है, परन्तु ये सुपार्श्व आत्मा को सोने के समान शुद्ध ही नही, अपने समान बुद्ध और मुक्त (सिद्ध) भी बना देते है।
मतलब यह है, हमारी आत्मा मे सोई हुई ज्ञान-दर्शन की विपुलशक्ति को अभिव्यक्त करने के लिए हमे वीतराग परमात्मा की वन्दना करके उनका सामीप्य प्राप्त करना चाहिए। क्योकि वन्दना करने वाले को वन्दनीय पुरुप के अभिमुख =सम्मुख होना आवश्यक होता है। जव वन्दक आत्मा वन्दनीय परमात्मा के सम्मुख होगी तो स्वभावत उसमे निहित ज्ञान-दर्शन की शक्ति के रोधक कर्मों का पलायन होने लगेगा, ज्ञानदर्शन को शक्ति को रोकने वाले रागद्वेष-मोहादि विकारो की भगदड शुरू हो जायगी और आत्मा की शान-दर्शन शक्ति निर्मलतर और निर्विकार होती जायगी। परमात्म-वन्दना का सबसे बड़ा लाभ यह है कि वन्दना मे चित्त एकाग्र होने पर साधक विषयविकारो से हट कर स्वस्वरूप के दर्शन एव ज्ञान में लीन हो जाएगा। वन्दना से सर्वोत्तम