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________________ सच्ची परमात्म-प्रीति १५ अन्तरात्मदशा में ही सतन विचरण करना पडता है । साथ ही वाह्यभाव का विसर्जन, बुद्धि-विलास पर अकुश, परभाव के त्याग के साथ शुद्धचेतना के पति विशुद्ध परम आत्मा के साथ इतनी एकलयता हो जाय कि ध्याना, ध्येय और ध्यान एक हो जाय, ऐसा आत्मार्पण हो जाना ही वास्तविक परमात्म-प्रीति है । और अध्यात्मयोगी का लक्ष्य सदा इमी प्रीति का साक्षात्कार करना होता है। आनन्दघन-पद का अर्थ आनन्दघन का अर्थ है - सच्चिदानन्दमय । सच्चा और ठोस आनन्द आत्मा को तभी प्राप्त होता है, जब वह विकल्पो, वितर्को, विकारो, पोदगलिक भावो या कपायादि परभावो से शून्य हो । आनन्दघनशब्द का शब्द अर्थ भी (मिद्ध शुद्ध, बुद्ध, मुक्त) आत्मा के आनन्द का समूह भी होता है । गणितशास्त्र मे लवाई, चौडाई और ऊँचाई, इन तीनो के समूह को घन कहते हैं । यहाँ भी आनन्द यानी आत्मा की निर्विकारी दशा और धन यानी उसकी विपुलता, ठोसपन, दोनो मिलकर आनन्दघनपद होना है । रेह शब्द की विभित्र अर्थों के साथ सर्गात H रेह शब्द का अर्थ 'रहना' भी होता है। जिसका अर्थ होता है - 'आनन्दवनमय परमात्मा के स्थान मे रहना ।' अधिकाश विचारको ने इसका अर्थ 'रेखा' किया है । रेखा का अर्थ वह चामत्कारिक मर्यादा है, जिसका उल्लघन नही किया जा सकता । कपटरहित हो कर आत्मसमर्पण करना ही आनन्दघनपद की मर्यादा (रेखा) है । रेखा का अर्थ कई लोग निशानी (चिह्न) भी करते हैं । वे यो अर्थसगति बिठाते हैं कि निष्कपट आत्मार्पणा ही आनन्द घन-पद-प्राप्ति की निशानी है । कई प्रतियों में रेह के बदले 'लेह' शब्द भी मिलता है । जिमका अर्थ किया जाता हूँ--ऐमा निर्व्याज आत्मार्पण ही आनन्दघनपद को उपलब्ध करना है । सारांश श्री आनन्दघनजी ने प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव परमात्मा की स्तुति करते हुए परमात्म-प्रीति का समस्त तत्वज्ञान इसमें बता दिया है । प्रीति के
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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