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अध्यात्म-दर्शन
परमात्मतत्त्व या शुद्ध ननन्यभाव में लीन हो जाती है, जो अगगुरगनना पी धाग में बहती रहती है, वही परमानगागी विभिदा नापा अर्थ स्वच्छ या निर्मन भी होता है। जैतन्य (Frm) मी निग, गाना है, जब उग पर विना पो, परभावो, नपायी या गागा-fere-imया नग गल्यो की छाया न पटे, या नगे गलिन नी।
निकपट अपंणता : परमात्मा की वास्तविक पूगा परमात्मा की भावपूजा ही चाग्नविक पूजा है। पयोगि उनी में पुग्य, पूजक और पूजा का अभेद या एकत्व अविन्दिामए मेर गाना। तभी परमात्मा के गाय तन्मयता या नदात्मता को गाती । और योगी TATTI ' लिए निप्पट अपंणता होनी अनिवार्य हैं। जहां पट आजि लगना में द्वैतभान, म्वायभान या मायादि शल्य या मोहगात आगरा. गमानी । जहाँ अर्पणता मे दम, दिखावा, या छल-प्रपन आ जाता है, वहां अपंगा पाग्नथित नहीं होनी, और न वहाँ मान्मा में आनन्द उत्पन होगा।
कई वार वहुत-से लोग परमात्मा की भक्ति का दिखावा करते हैं। बड़े-बरे समारोह करके वे परमात्मा की पूजा यो अदितता बनाने के लिए अगं मीनंग, अखण्ड जप आदि करते है, परन्तु उगनाय गच्चे गाने में अपना नहीं होती, या तो प्रसिद्धि या नामना-सामना होती है या लोकर जन पर परमात्मभत्ति, प्रभपूजा या अखट प्रभुनामकीर्तन की ओट में अपनी विगी म्वार्थसिद्धि यीभावना होती है । अत किसी प्रकार के दम, छनप्रपच, मायाजाल या दिखावे आदि में दूर रह कर निष्काम-नि स्वार्थभाव मे शुद्ध चेतना का परमात्म-चेनना में अर्पिन हो जाना - तल्लीन हो जाना ही परमात्मा की सच्ची पूजा है। मच्चा गमर्पण 'अप्पाण वोमिरामि' - यानी अपने आत्मतत्त्व से भिन्न परभाव-जिनको अभी तक साधक अपने मानना आया है, उनका व्युमर्ग--अन्न करण ने त्याग करने पर ही आता है। समर्पण मन को मनाने या लौकिक चातुर्य वताने का नाम नहीं है, क्योकि ऐसा करने में महजभाव नहीं रहता । उममे तो परमात्मा (आदर्श युद्धात्मदशा) के लिए सर्वस्व न्योछावर करने, अपने आपको भूल जाने और तद्रूप दृप्टि, तन्मयता, और तदात्मना प्राप्त करने की तडफन चाहिए । ऐमे समर्पणकर्ता को बहिरात्मदशा मे सदा-गर्वदा के लिए गर्वथा मुक्त हो कर