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________________ ४४२ अध्यात्म-दर्शन मुमुक्षु एवं आत्मार्थी नाधक की मन शन्ति जहाँ तक नहीं होनी, वहाँ तक वह शुद्धात्मस्वरूप में रमणता, या परमात्मा मे तन्मयता कर नहीं सकता। इसलिए श्रीआन दघनजी ने अपनी और नमस्त मुमुक्ष माधको की मन शान्ति के लिए यह जिज्ञासा न्यायोचित ही प्रस्तुत की है । जैनदर्शन के अनुसार यथार्थ आत्मतत्व कौन-सा और कैसा है ? वह कैसे प्राप्त हो सकता हैं ? यह अगली गाथाओ मे पढिए-- वलतुजगगुरु इणि परे :खे, पक्षपात सब छडी। राग-द्वोष-मोह-पखजित, आतपशु रढ मडो ॥श्री मु०॥ आत्मध्यान करे जे कोऊ, सो फिर इण मे ना 5 वे। वाग्जाल वीजु सहु जाणे,' एह तन्द चित्त' चावे ॥श्री म०६॥ जेणे विवेक घरी ए पख नहियो, ते तत(त्व)ज्ञानी कहिये। श्रीमनिसुनत कृपा करो तो, ' आनन्दघन-पद लहिये ।।श्री म०॥१०॥ अर्थ पूर्वोक्त प्रश्न के उत्तर मे जगद्गुरु वीतराग प्रभु इस प्रकार(निम्नलिखित रूप मे) कहते हैं -नब कार का पक्षपान 'एक मत का एकान्त आग्रह) छोड कर गा [मनोऽनुल इप्ट अनात्मपदार्थ के प्रति मोह-आसक्ति]-प मन के प्रतिकूल अनिष्ट अनात्मपदार्य के प्रति घृणा या अरुचि) मोह (ममत्व के कारण होने वाला उत्कट राग) तथा सभी प्रकार के पक्षपात से रहित जो अनन्तगुणमय आत्मा है, यो विचार करके उसके साथ दृढतापूर्वक एकाग्र हो जाओ, जुट जाओ ॥ ८॥ जो कोई साधक उस आत्मा का निर्विकल्प-समाधिरूप-द्रव्याथिक दृष्टि से ध्यान करता है, वह तिर राग-वृष, मोह, पक्षपात आदि के चक्कर मे नहीं १. जाणे' के बदले किमी-किसी प्रति मे 'जाणो' है, तथा 'चावे' के बदले 'लावे पद भी है।
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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