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परमात्मा से आत्मतत्त्व की जिज्ञासा
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आएगा, वास्तव मे वह आत्ममय बन जाएगा। इससे सिवाय और जो भी वर्णन है, अलग-अलग विचा' है, वह सब वाग्जाल है, वाणीविलास है । मन या आत्मा मे इसी तत्त्व का वार-बार मनन-चिन्तन करे, यही वात हृदय मे भलोमांति जमा ले, इसी मे तन्मय हो जाय III
जिसने सत्यासत्य का विवेक करके ऊपर बताए हुए पक्ष (मार्ग या अभिप्राय) का ग्रहण स्वीकार) कर लिया. उसे ही वास्तविक तत्वज्ञानी कहना चाहिए हे मुनि सुर्वतनाथ | आप कृपा करें तो हम [इस आत्मतत्त्व को आपके वतार अनुसार समझ कर ) आनन्दधन [सच्चिदानन्दमय] पद (मोक्षस्थान) प्राप्त कर सकते हैं।
भाव्य
वीतरागप्रभु का उत्तर यो तो वीतरागप्रभु नि स्पृह और निर्लेप में, वे किसी के प्रश्न का सीधा उत्तर दें, यह वस्तु उनके तीर्य करकाल में तो सम्भव हो सकती है, लेकिन सिद्धत्वकाल मे नही । अत श्रीआनन्दघनजी वीतरागद्वारा प्ररूपित शास्त्री पर से आत्मतत्त्व के विषय मे जो स्फुरणा हई, उसे उन्ही का उत्तर समझ कर उन्ही के श्रीमुख से उत्तर दिलाते हैं, इसमे उनकी नम्रता, समर्पणवृत्ति और जिज्ञामावुद्धिं परिलक्षित होती है। भगवान् वीतराग होने से सब प्रकार का , पक्षपात छोड कर विना किसी लागलपेट, मुलाहिजे अथवा किसी एक ओर ' सुकाव के सबकी समझ मे आ सके, इस प्रकार (वीतराग-मुनिसुव्रतप्रभु) उत्तर देते हैं-भव्य जिज्ञासु | वेदान्त, साख्य, वौद्ध और नास्तिक आदि मभी एकान्तवादियो के पक्ष को छोड कर, साथ ही अपने अन्दर रहे हुए राग, द्वप, मोह (स्वत्वमोह, कालमोह) का त्याग कर अयवा राग-द्वेष-मोह-पक्षरहित शुद्ध (निर्दोष) निजात्मस्वरूप मे तल्लीन (तन्मय) हो कर तीव्रता से जुट जाने से चित्तसमाधि अवश्य प्राप्त होगी । अर्थात् राग-द्वेष-मोह-पक्ष-जनित कर्मपुद्गलो से रहित आत्मस्वरूप मे पूर्ण प्रीति करना आवश्यक है। इसका एक स्पष्ट अर्थ यह भी है कि आत्मा के अनुजीवी गुणो-ज्ञान -दर्शन-चारित्र मे लीन हो जाना चाहिए।
यथार्थ आत्मतत्वज्ञान के लिए राग द्वेष-मोह-पक्ष का त्याग जल्री सच्चा आत्मतत्त्वज्ञान कुछ त्याग की अपेक्षा रखता है । वह योवन पोथियो,