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________________ परमात्मा से आत्मतत्व की जिज्ञासा ४४१ लहे, इस बात के साथ कैसे सगति बैठेगी? इसका समाधान मेरी दृष्टि से यह है कि यहां जो कहा गया है, वह योगीश्री ने अपने लिए नहीं कहा है, ऐसा मालूम होता है । यह उन्होंने आम आध्यात्मजिज्ञासुओ और मुमुक्षुओ के लिए कहा है कि इस प्रकार अनेक अध्यात्मवादियो की आत्मा के सम्बन्ध मे पृथक पृथक् राय सुन कर बुद्धि चकरा जाती है, वह घपले मे पड जाती है। अनेक लोगो की परस्पर विरोधी एव अपनी अपनी युक्तियो की छटा से युक्त बातें मुन कर स्वाभाविक है कि आम (आदमी जिसका विविध दर्शनशास्त्रो का अध्ययन नहीं है, जो जैततत्वज्ञान से अनभिज्ञ है, सहमा सशय में पड जाता है कि यह मत सच्चा है या वह मत ? आज भी पाश्चात्य सस्कृति या कामभोगोत्तेजक विचारधारा सुन कर व डे-बडे प्रभावित हो जाते हैं, वैसे भोगपरायण किन्तु भगवान्, पैगम्बर आदि पदो से विभूषित तथाकथित वाक्पटु लोगो की लच्छेदार और झटपट गले उतर जाने वाली युक्तियो, हेतुओ, दृष्टान्तो तथा डम्बरो को देख कर वे हतप्रभ हो जाते हैं। हजारो-लाखो लोगो की भीड देख कर वे सोचने लगते हैं- इतने लोग इनकी बात सुनते हैं, तो क्या ये सब बुद्ध है ? इस प्रकार उनकी बुद्धि झटपट डावाडोल हो उठती है। उनके दिमाग मे तूफान खडा हो जाता है कि इतने बडे माने जाने वाले व्यक्ति की बातें मिथ्या या सब कुछ असत्य कसे हो सकती है ? जब तक उनके मन का प्रवल , युक्तियो से यथार्थ समाधान न कर दे, तब तक उन्हे शान्ति नही होती। और यथार्थ समाधान तो नि स्पृह, निष्पक्ष, वीतराग आप्तपुरुष ही कर सकता है। पहले कहा जा चुका है कि चाम्थ व्यक्ति चाहे कितने ही महान् पद पर हो, बाहर से क्तिना ही त्यागी कहलाता हो, उसके द्वारा बेलाग और वेराग कहा जाना कठिन है । इसीलिए आनन्दघनजी ने अपनी नम्रता प्रदर्शित करने के साय साथ जगत् के नाम साधको को प्रात्मतत्त्व की सच्ची राह मालूम कराने हेतु अथवा सर्वसाधारण को बुद्धि को ऐसे वाक्पटु लोगो के जाल से निकालने के लिए वीतराग परमात्मा से यथार्थ आत्मतत्व कौन-सा है ? पूर्वोक्त दर्शनो की वातो मे सचाई कितनी है ? यह जिज्ञासा पुन प्रकट की है और यह भी प्रकट कर दिया है कि आपके (वीतराग) के मिवाय आत्मतत्व का यथार्थ ज्ञान कोई नहीं कह सकता । इसका कारण भी पुन उन्होंने दोहगया है कि यथार्थ मात्मतत्व जाने विना चित्तसमाधि मन शान्ति) प्राप्त नहीं हो सकती।
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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