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अध्यात्म-न
एम अनेक वादी मतवित्रम सकट पडियो न लहे। चिन्त समाव ते माटे पूर्छ, तुमविण तत कोई न कहे ।मु० ७॥ .
अर्थ इस प्रकार अनेक एकान्तवादियो दार्शनिको) ने (मात्मतत्व के विषय मे अपनी-अपनी एकान्त बातें कह कर) मेरी वृद्धि भ्रम मे डाल दी है । इस कारण मे धर्मसकट में पड़ गया हूँ। मेरा चित्त समाधि (समाधान नहीं कर पाया, इसलिए मैं आपसे (अपने मन को, खासतौर से शान्ति के लिए। इसके बारे पूछता हूँ। मुझे विश्वाम है कि आपके विना (निष्पक्षरूप से कोई आत्मा के विषय मे सत्यतत्व क्या है ? इसे नहीं कह सकता।
भाष्य श्रीआनन्दधनजी को उलझन और तत्वज्ञान को तीव्र जिज्ञासा श्रीमानन्दघनजी आत्मतत्व के विषय मे परमात्मा के समक्ष इतने दार्थनिको के विविध परस्पर विरोधी मन्तव्यो को प्रस्तुत करके तया उनकी विचार घारा क्यों नहीं जती ?, इस बात का अष्ट निवेदन करने के बाद भी पुन निवेदन कर रहे हैं कि "प्रभो । इस प्रकार में अनेक मनवादियो की एकान्त विचारधारा आत्मतत्व के विषय मे सुन कर वेदान्न, माघ, बौद्ध और चार्वाक आदि दर्शनो के पृथक-पृयक् अभिप्रायो को जानकर मेरी बुद्धि ऐमे भ्रमजाल के सकट में पड़ गई है, कि कोई भी साधक ऐमे सकट में पड कर मन मे निमी प्रकार की समाधि या शान्ति प्राप्त नहीं कर सकता । मैं भी नग्ने मन की शान्ति, स्थिरता और एकाग्रता को खो बैठा हूं अतएव निरुपाय हो कर मुझे आपको पूछना पडा है । क्योकि चित्तसमाधि या आत्मतत्व के सच्चे जिन्नासुओ को आपके मिवाय कोई भी तत्व (यथार्थ स्वरूर कह नही सवता । आप ही आत्मा का यथार्थ नत्व समझाइए और मेरे चित्त का समाधान वीजिए।" । ___ कोर्ट यहां सवाल उठा सकता है कि अध्यात्मयोगी श्रीआनन्दघनजी ने पूवगाथाओ मे आत्मतत्व के सम्बन्ध में प्रतिदिन विविध दार्शनिको का मत प्रस्तुत करके स्वयमेव उनका खण्डन किया है, इस पर से ऐसा प्रतीत नही होता कि श्रीआनन्दघनजी किसी प्रकार के भ्रम में हो और उनकी बुद्धि कुण्ठित हो कर वास्तविकता को न समझ पा रही हो । तव परमात्मा के समक्ष इन गाथाओ में उन्होने जो कहा है-'इम अनेक वादी मतिविभ्रम संकट पडियो न