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________________ अध्यात्म-दर्शन या नुकसान पहुंचाने की दृष्टि से लिए बाहर में अध्यात्मलक्ष्यी दिवाई देने वाली निन्या भी निदान-विप मे दूपित होने कारण अध्यात्म नहीं कही जा सकती। जो क्रिया करने योग्य है, उने न करना जननुप्ठान निया, वह भी किमी अपेक्षा से त्याज्य है, फिसी अपेक्षा में उपादेय है। तथा तदहेतुक्रिया और अमृतक्रिया वे दोनो म्बत्पल यी व आत्मगुण विकासलली होने से सर्वथा उपादेय है, नमादरणीय है, अध्यात्मम है। चाहे जैसी उटपटाग क्रिया को या अमुक ज्ञान की प्राप्ति को अध्यात्म नहीं कहा जा सकता। स्पप्ट शब्दो मे कहे तो जिन किया ने आरम्भ, परिग्रह (अनात्मपदार्थ पर ममता) आदि कार्य-कारणभावयुक्त प्रिया से अथवा इन्द्रियो के शब्दादि विपय, क्रोधादि कपायभाव से युक्त क्रिया में माधक को नरक, नियंच, मनुष्य, देव आदि गतियो मे से कोई भी गति मिले, नद्रूप क्रियात्मक नाधना आध्यात्मिक नहीं समझी जातो। परन्तु निश्चयदृष्टि में निजस्वरप और व्यवहार दृष्टि में अहिंमा, सत्य, जप-तप आदि-महित मन-वचन-नाया की निर्वन्ध निया है, जो निज-पद को माधने में बहुत उपयोगी है। उसी क्रिया को आध्यात्मिक निया मानी गई है, जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्नान और सम्यक्चारित्र की ही क्रिया है। तया अप्रमत्तभाव से विषयकपावादि से रहित या अनात्मपदार्थ पर ममता से दूर रह कर किया की जाय, वह भी आध्यात्मक्रिया है। अगली गाथा मे अध्यात्म को चार निक्षेपो से समझा कर हेयोपादेय का विवेक बताते हुए श्रीआनन्दघनजी कहते हैं नाम अध्यातम, ठवण अध्यातम, द्रव्य अध्यातम छंडो रे । भावअध्यातम निजगुण साधे, तो तेहशु रढ मडो रे ॥ श्रीश्रेयांस० ॥४॥ १. मालूम होता है श्रीआनन्दघनजी के युग मे चैत्यवाद का बहुत जोर था, या भक्तिमार्गीय सम्प्रदायो मे बाह्याडम्बर, चमत्कार एवं मयादि का जोर था, उन सबकी ओट मे अध्यात्म का नाग लगाया जाता था। इसी कारण श्रीआनन्दवाजी को अध्यात्म का गच्चा अर्थ करना पड़ा।
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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