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अध्यात्म-दर्शन
संमार मे विचार बहुत से लोग करते हैं, पर वे दीर्घदशिता तथा व्यापक दृष्टि से विचार नहीं करते, उनका विचार एकागी, एकपक्षीय होता है, अपने मत-पक्षकी चहारदीवारी मे सीमित होता है । ससार की प्रचलित विचारधाराओ की छानबीन करने में उनकी सत्यग्राही जिज्ञासा नही होती, इसी कारण उनमे मतमहिष्णुता, विचारसहिष्णुता तथा आचारसहिष्णुता नहीं होती, वे वात-बात मे झल्ला उठते हैं, सत्य की तह तक पहुँचने के लिए जो धैर्य, विवेक और अनेकान्तदृष्टि होनी चाहिए, उसकी उनमे कमी होती है । असल मे, जिसमें विशालप्टि, सहिष्णुता, दीर्घदर्शिता और युक्ति एव अनुभूति नहीं होती, वह भगवान् सत्य के चरणो का उपासक नहीं हो सकता । दर्शनविशुद्धि, चारित्रशुद्धि और ज्ञानशुद्धि का प्रथम अग है, उसके बिना कोई भी किया, जप,तप आदि सफल नहीं हो सकते। चूंकि सम्यग्दृष्टि होने पर उसकी दृष्टि मे जादू आ जाता है, वह जिस शास्त्र, मत, विचारधारा या आचारपद्धति को देखता है, उसे जनदृष्टि मे समाविष्ट करने और सत्याश को विनयपूर्वक अपनाने के लिए प्रयत्नशील हो जाता है। इसीलिए नदीसूत्र मे कहा है-एमआइ चेव समदिट्ठिस्स समत्तपरिगहतेण सम्मसुयं, मिच्छादिविस्स मिच्छत्तपरिग्गहत्तण मिच्छासुयं ।' ये जो तथाकथित मिथ्याश्रुत मे परिगणित शास्त्र हैं, वे सम्यग्दृष्टि के लिए सम्यग्रूप से ग्रहण करने के कारण सम्यक्श्रुत हैं और ये ही सम्पक श्रुत मे परिगणित शास्त्र मिथ्या दृष्टि के लिए मिथ्याशास्त्र हैं, क्योकि वह विपरीतरूप मे अपनाता है।
वीतरागपरमात्मा का चरण-उपासक कौन, क्यों, कैसे ? यही कारण है कि श्री आनन्दघनजी ने वीतराग परमात्मा के चरणोपासक बनने के लिए इस स्तुति मे कुछ शर्ते प्रस्तुत की हैं , निम्नलिखित मुद्दो में आ जाती हैं१-विविध दर्शनो के सम्बन्ध मे सहिष्णुता और यथायोग्य स्थापना
की दृष्टि हो। २-सवको अपने मे समाने की सम्यग्दृष्टि हो। ३- सत्याग्राही जिज्ञासा, धैर्य, विवेक, एव दीर्घदशिता हो । ४-वीतराग की सर्वांगीण आज्ञा का पालन ही सर्वांगसेवा हो । ५-जनदृष्टि मुख्यत अभेदवादी होने से आचारसहिष्णुता हो।