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वीतराग परमात्मा के चरण-उपासक
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६-तथाभव्यता की-सी महाकरुणा हो, ज्ञानादि के प्रति विनयभावना हो।
जगत् मे सामान्यतया विविध मत, पथ, दर्शन या धर्मसम्प्रदाय के लोग अपने मतादि को मानने वाले को ही प्रभु का भक्त या भगवान् के चरणो का उपासक कह देते हैं । वे न तो उसकी विचारधारा की यथार्थ छानवीन करते हैं, और न ही उस तथाकथित प्रमुभक्त के आचरण की कोई कसौटी निर्धारित करते है। परन्तु जैनदर्शन मे वीतराग-परमात्मा का भक्त या चरणउपासक वशपरम्परा से, पैतृकपरम्परा से, अन्धभक्ति से, भगवान् की महिमा वढाने के लिए सिर्फ धन खर्च कर देने से, या किसी अमुक उच्च माने जाने वाले कूल, वश, जाति, धर्मसम्प्रदाय या राष्ट्र में पैदा होने से अथवा किसी सत्ता को हथिया लेने से या लौकिक पद को पा लेने मात्र से नही हो सकता । यहाँ तो सम्यग्दर्शन , सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ही वीतराग के चरणसेवक, परमात्मा, उपासक या श्रावक के लिए सर्वप्रथम अनिवार्य माने जाते हैं। यहां तो किसी भी जाति कुल, वश आदि की परम्परा से नही, रत्नत्रय के आचरण से ही किसी को भक्त या उपासक माना गया है । हरिकेशीबल-मुनि जाति से चाण्डाल थे, धर्मपरम्परा से भी शायद वे अपने पूर्वजीवन - गृहस्थाश्रम मे जैनधर्म परम्परा के नहीं रहे, किन्तु उनका दर्शन, ज्ञान और चारित्र उज्ज्वल था, अर्जुनमालाकार का पूर्वजीवन भी हिंसक बना हुआ था, न वह जातिपरम्परा से जैन था, लेकिन अपने जीवन मे उसने रत्नत्रय को अपनाया और क्षमाशील बन कर अपूर्व श्रद्धा के साथ चारित्रपालन किया, पिसके कारण वीतराग तीर्थंकर महावीर का वह परमउपासक साधु बना। लेकिन कोणिक सम्राट जैसे व्यक्ति सत्ता, जाति, कुल परम्परा या अन्धभक्तिवश भगवान् वीतराग का भक्त बनने चले, वे सच्चे माने में प्रभुभक्त बनने मे सफल न हुए। इसी प्रकार जिन्होंने ने अपने अहत्व और ममत्व (मेरा धर्म, मेरे भगवान्, मेरा पथ आदि) की दृष्टि से भगवान् का आश्रय लिया, अपने पापो पर पर्दा डालने या अपनी नामबरी या प्रसिद्धि के लिए अथवा जनता में अपनी धाक जमाने के लिए वीतराग प्रभु के नाम और स्यूल चरण को पकडा, वे भी यहां सफल न हो सके। सफल वे ही हुए, जिन्होने सम्यग्दर्शनपूर्वक सम्यक् धर्माचरण (चारित्रपालन) के लिए अपने को तैयार किया , ऐसे महानुभाव चाहे जिस