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________________ परमात्मा की सेवा , की प्रवृत्ति करते समय थकान, अधीरता या झुंझलाहट होती प्रतीत हो तो समझ लेना चाहिए कि यह मेरी किसी नादानी का परिणाम है। मुझे इनसे वच कर तुरत किनाराकमी करनी चाहिए ; अन्यथा मेरी परमात्ममेवा की प्राथमिक भूमिका परिपक्व नही होगी , कच्ची रह जाएगी। इन तीनो दोषो से रहित हो कर परमात्मसेवा की भूमिका तैयार करें निवर्प यह निकला कि किसी के लिहाज, दवाव, या किसी प्रकार की • भीति के शिकंजे मे न आ कर निर्भयता से--अभय वन कर सेवासाधना करे , साथ ही सभी प्राणियो-खामकर मानवो मे निहित प्रतिकूल वेप, जाति, सम्प्रदाय, वर्ण, रग, प्रा.त आदि के प्रति, या प्रतिकूल परिस्थिति अथवा वस्तु के प्राप्त होने पर उनके प्रति घृणा, अरुचि या अप्रीति छोड कर प्राणियो मे निहित गुद्व आत्मतत्व के प्रति रुचि या प्रीति करे, अनिष्ट वस्तु या स्थिति के प्राप्त होने परशुद्ध आत्मभाव की और अपनी लीनता-नन्मयता रखे। इसी प्रकार परमात्मसेवामाधना की किसी भी प्रवृत्ति को रुचिपूर्वक, श्रद्धापूर्वक, धैर्य के साथ विना, थके बिना, ऊवे फनाकाक्षा पूरी न होने पर भी उत्साहपूर्वक सतत करता रहे। परमात्मसेवा के लिए प्राथमिक भूमिका के रूप मे अभय, अद्वप और अखेद इन तीनो को साधक अपना ले, यही श्रीआनन्दघनजी का आशय है। भूमिकापूर्वक परमात्मसेवा के वास्तविक अवान्तर फल पूर्वगाथाद्वय मे परमात्ममेवा का स्वरूप, रहस्य और उसके लिए प्राथमिक भूमिका के रूप मे भय, द्वेप और खेद इन तीनो दोपो का त्याग बताया , परन्तु माधक के अन्तर मे सहज ही प्रश्न होता है कि आखिर परमात्ममेवा की पूर्वोक्त भूमिका और स्थिति कब और कैसे तैयार होती है ? उसे उक्त साधना के दौरान क्या क्या यथार्थ लाभ कर्मक्षय या क्षयोपशम की दृष्टि से मिलते हैं ? इमी जिनामा को शान्त करने हेतु श्रीआनन्दघनजी अगली गाथा में कहते हैचरमावर्त हो चरमकरण तथा रे, भवपरिणति-परिपाक । दोष टले वली दृष्टि खुले भली रे, प्राप्ति प्रवचन-वाक् ॥सम्भव०॥३॥ अर्थ
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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