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अध्यात्म-वन
जव चरम (अन्तिम) पुद्गलपरात चल रहा हो, यानी भवनमण फा अन्तिम च हो , तथा उसमे भी चरमपरा (नोनों करणों में से अन्तिम करण) हो और जब मवररिणनि (जन्ममरण की स्थिति परम्पग) मा परिपाक = अन्तिम तिरा आ पचा हो, तव कर्ममलरप टोपो का निवारण हो जाता है, तथा उसकी दृष्टि सम्यक् हो पर खुल जाती है, मात्मसम्मा होती जाती है और उगे वीतराग-प्रवचन को मापी मा लान प्राप्त होता है !
भाप्य पूर्वोक्त गाथाद्वय में वताये हुए भय, द्वेष और मेदन तीनो दोपों से चले जाने पर परमात्मगेवा की प्रथम भूमिमा प्राप्त होती है , और नत्र गाय की दृप्ति में में मनामिनन्दिता (मगार में जन्म-मरण के चक्र में जलने गनी बातो मे मनि = प्रसन्नता) मिट जाती है और उसमे मोक्षाभिनन्दिना उत्पन्न हो जाती है। यानी नाधक का मन नगार की गैर मे हट गेनी और हो जाता है।
पहली उपलब्धि · चरमपुद्गलपगवतं कमलयस्प मुक्ति की दशा में माधर जपारजन्ममरणा नसारमागर मे मिथ्यात्वाश्रित अनन्तदुखरूप जनन्न पुद्गलपनवों का अनुभव करना हुआ सागर के किनारे लगने की तरह पुद्गलपरावर्त के किनारे लग जाता है। अर्थात् उनका पुद्गलपरावर्तजन्ममरण का तक जन्तिम रह जाता है। परमात्ममेवा के लाभ के रूप में साधक की समारयामा कितनी कम हो जाती है । मोक्ष की दौड मे वह कितना नफल हो जाता है । चरमपुद्गलपरावर्न कोई कम उपलब्धि नहीं है। पुद्गलपरावर्त जैन पारिभाषिक शब्द है । द्रव्य मे मामान्यतया मर्वपुद्गलो का जिगमे ग्रहण और त्याग हो ,वह पुद्गलपगवतं कहलाता है । चरम (अन्तिम) पुद्गलपरावर्त यानी पर्यन्नवर्ती पुद्गलावर्त-- द्रव्यत. सामान्यतया मभी पुद्गलो के गहण और त्यागरूप से प्रवृत्त होने पर होता है । इसका स्पष्टीकरण इम प्रकार है-चौदह रज्जूनमाण नोक मे आदारिक, वैक्रिय, नेजम, कार्मण, भाषा, श्वामोच्छ्वान और मन इन मातो की वर्गणाओ के रूप में सभी पुद्गल भरे हुए हैं। उनका परिणमन करना अर्थात् उक्त प्रत्येक वर्गणा के रूप मे प्रत्येक पुद्गल का परिणमन किया जाय, तब द्रव्य से वादर पुद्गलपरावर्त होता है। इसी तरह एक-एक पुद्गलपरमाण .