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________________ ५१६ अध्यात्म-दर्शन कैसे होता? पदार्थों का यथाव स्थित स्वरूप ज्ञान के विना कैसे जाना जाता ? इसलिए जान को नात्मा का सर्वोपरि गुण माना जाता है। परमात्मा में ज्ञानगुण मर्वोच्चरूप से विकसित होता है, समस्त ज्ञेयपदार्थ उनके ज्ञान मे झलकते हैं, प्रतिविम्बित होते हैं। परमात्मा (शुद्ध आत्मा) के इमी ज्ञानगुण को ले कर एक चर्चा प्रस्तुत की गई है-'सर्वव्यापी कहे' प्रभो आपको लोग मर्वव्यापी कहते हैं, जैसे कई धर्मों और दर्शनो वाले लोग ईश्वर को सर्वव्यापी=सर्वपदार्थ मे व्याप्त कहते हैं, निश्चयनय की दृष्टि से आत्मा भी सर्वव्यापक है। यहां यह सवाल खडा होता है कि परमात्मा को मर्वव्यापी अन्यदर्शनी लोगो की मान्यता की तरह ही माना जायगा, या और किमी रूप मे ? जहाँ तक जैनदर्शन का मवाल है, श्रीआनन्दघनजी ने वस्तुस्वरूप पर गहराई से सोच कर यहाँ उत्तर दिया है-'सर्वव्यापी कहे सर्वजाणगपणे' अर्थात् परमात्मा को सर्वव्यापी कहा जाय तो कयचित् सत्य माना जा सकता है। परमात्मा (शुद्ध आत्मा) का ज्ञान सकल चराचरपदार्थ और गुणपर्याय को जानता है, इस सर्वज्ञानता की अपेक्षा परमात्मा या मात्मा मर्वव्यापक विभु है। क्योकि जब जान सवको जानेगा सो सव ज्ञेयो का स्पर्श या प्रतिविम्व उस पर पडेगा ही। मवको जो जानता है, वह सर्वव्यापी है। परन्तु यदि सर्वव्यापक का अर्थ यह किया जाय कि परमात्मा मर्वत्र सव पदार्थों में व्याप्त होते हैं, तब तो परमात्मा या आत्मा परद्रव्य मे परिणमनरूप या रमणकर्ता बन जाएगा, जो उसके स्वभाव के विरुद्ध है। इसलिए परमात्मा या मात्मा सर्वपदार्थव्यापी नहीं हो सकता। एक प्रश्न और खडा होता है-सर्वज्ञानता के कारण जब परमात्मा सर्वव्यापक विभु है, तब वे ज्ञानगुण से जिसे-जिसे जानेंगे, उस-उस ज्ञेय के रूप मे जान और आत्मा परिणित हो जायेंगे, उस पदार्थ को वे (शुद्ध आत्मा) पूर्ण. तया जान सकेंगे। जरा भी जानना शेप रह जायगा तो उनकी सर्वज्ञानता मे कमी रह जायगी। क्योकि वह पदार्थ, सम्पूर्णरूप से उनके ज्ञान मे प्रतिविम्बित हो जाता है, अथवा ज्ञान उस रूप मे (तदाकार) सम्पूर्ण बन जाता है, तभी वे उसे पूरी तरह से जान सकते हैं। कोई भी गुण-स्वभाव अपने आप मे पूर्ण होता है, अपूर्ण तो सम्मव ही नहीं है । रुपया अपने आप मे पूर्ण है, पैसा अपने रूप मे पूर्ण है । अत शुद्ध परमात्मा) की सर्वज्ञानता समस्त ज्ञेयो मे तद्रूप
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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