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आत्मा के सर्वोच्च गुणो की आराधना
५१७ परिणमन होने पर ही पूर्णता के शिखर पर पहुंची कही जाएगी।" इसीलिए कहा गया-~'परपरिणमनस्वरूप' इसका समाधान यह है कि यह सच है कि 'आत्मा कचित् परिणामी है', परन्तु यह अनन्त ज्ञानमय होते हुए भी परपरिणति से अबाधित है । आत्मा का आत्मत्व जिम तत्व के रूप मे है, वह परपरिणतिरूप मे नही दिखना । अगर परमात्मा के ज्ञान को पूरी तौर से ज्ञेयाकार होना माना जायगा तो फिर ज्ञानगण का आश्रयभूत आत्मा-द्रव्य भी ज्ञयरूप वन जायगा। ऐमा होने पर सर्वज्ञ आत्मा अन्य-सर्वपदार्थरूप हो जायगा, और परमात्मा इस तरह का सर्वव्यापक (विभु) माना जाए तो उसे परपदार्थ के रूप मे परिणत होना पडेगा। इस प्रकार परत्व प्राप्त हो जाने पर उस आत्मपदार्थ का अपना जो म्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूप स्वरूप है, वह रह न सकेगा, क्योकि परद्रव्य-क्षेत्रकाल-भावरूपता उसमे आ जाय तब तो स्वतत्वता या स्वस्वरूपता उसमे रहती ही नहीं। जगत् मे प्रत्येक पदार्थ स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से स्वस्वरूप मे है, और परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से परपदार्थ रूप है। प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव मे परिणत होता रहता है। और पररूप (परत्व) से पर के द्रव्यादि मे रहित होता है, यही उसकी सत्ता है यही उसका स्वरूप है, उसी रूप में वह यथाथ पदार्थ है ।
निष्कर्ष यह है कि आत्मा का स्वभाव परद्रव्य मे रमण करने का नही है, सथैव दूसरे पदार्थ भी आत्मा (परमात्मा) के स्वरूप मे नही होते । अत शुद्ध आत्मा (परमात्मा) को सर्वव्यापक के नाम पर यदि परपदार्थरूप मे बनना मान लिया जाय तो वह परपदार्थ जैमा बन कर उमी मे रमण करने लगेगा। फिर
न्मा (परमात्मा) का अपना स्वातत्र्य कहाँ रहा ? फिर आत्मा को स्वतत्र, स्वात्मसुखभोक्ता कसे कहा जा सकेगा? जब वह पररूप (दूसरे पदार्थ के रूप) मे बन जाता है, तो उमका अपनापन (स्वत्व या आत्मत्व) नही रहता। इसीलिए कहा है-'पररूपे करी तत्वपणु नहीं' अर्थात् किसी एक आत्मद्रव्य का सचेतन दूसरे आत्माओ के स्प मे या अचेतनद्रव्य पुद्गलादि के रूप मे परिणमन होने पर अपना आत्मत्व नही रहता । आत्मा के पररूप बन जाने पर उसका आत्मत्व (स्वम्वरूपत्व) नहीं रहता। तथा परपदार्थ के नाश के साथ ही उसका
भी नाश मानना पडेगा । आत्मा की सत्ता स्वस्वरूप मे अस्तित्व चिद्रूप-ज्ञान । (चेतना) रूप है । उसके पररूप होने पर वह अचेतनामय अज्ञानमय बन जाएगा।