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________________ ५१८ अध्यात्म-दर्शन फिर यह नहीं कहा जा सकेगा- "आत्मा का स्वरूप चिद्रूप-चेतनारुप है। यही बात इस गाथा में कही गई है-'स्वसत्ताचिद्रूप' । अगर आत्मा पर मे परिणत होने लगे तो वह अमव्य और अस्थिरस्वभावी हो जायगा। इसलिए द्रव्यायिक नय से आत्मा सर्वव्यापी है, परन्तु पर्यायाथिक नय से वह मर्वव्यापी नही है । परमात्मा की परपदार्थ मे परिणमन करने के अर्थ मे सर्वव्यापी नही अपितु सर्वज्ञानत्व के अर्थ मे सवव्यापी समझना चाहिए । क्योकि आत्मा की सत्ता-स्वरूपास्तित्व समस्त पदार्थों को जानने की है, तद्र पपरिणमन करने की नही, क्योकि उसका स्वभाव ज्ञानमय है। अगली ४ गाथाओ मे क्रमश. द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से आत्मा का परत्व बताया गया है ज्ञेय अनेके हो ज्ञान अनेकता, जलभानन रवि जेम, सुज्ञानी ! द्रव्य एकत्वपणे गुण-कता, निजपद रमतां खेम; सुज्ञानी ! J०३।। अर्थ जय अनेक होने पर ज्ञान भी अनेकत्व को प्राप्त करता है। जैसे जल से भरे अनेक वर्तनो मे एक सूर्य होते हुए भी अनेक सूर्य दिखाई देते हैं । सूर्य की तरह आत्मद्रव्य एक होते हुए भी गुणो का भी एकत्व होता है। मुक्त (सिद्ध) परमात्मा तो अपने अनेकगुणात्मक पदस्थान मे आनन्दपूर्वक रमण करते हैं । भाष्य द्रव्य से आत्मा का ज्ञानगुण एव ज्ञेय इस गाथा मे परमात्मा (शुद्ध आत्मा) के मुख्य गुण-ज्ञान के सम्बन्ध मे द्रव्य से विचारणा की गई है कि जानने की चीजें (ज्ञेय) अनेक होने पर ज्ञान भी अनेक हो जाते हैं। इसे दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं-जैसे सूर्य एक ही होता है, परन्तु पानी स लबालब भरे हुए अनेक बर्तनो मे प्रत्येक मे उम सूर्य का प्रतिविम्ब पडने से पृथक्-पृथक् अनेक सूर्य दिखाई देते हैं, उसी प्रकार ज्ञान होते हुए भी अनेक ज्ञ यो मे पृथक्-पयक ज्ञयाकार में परिणत हो जाने पर (वे ज्ञेय) जैसे अनेक हैं, वैसे ज्ञान भी अनेक हो जाता है। वास्तव में यह बात पर्यायदृष्टि से यथार्थ है कि ज्ञेय अनेक हैं तो ज्ञान भी अनेक है, यानी अलग-अलग आविर्भाव की दृष्टि मे उन ज्ञेयो का ज्ञान
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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