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आत्मा के सर्वोच्च गुणो की आराधना
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(जानकारी) भी अनेक प्रकार का होता है। प्रत्येक वस्तु अपनी विशेषता के अनुमार पर्याय की अपेक्षा से अलग-अलग प्रकार की मालूम होती है। प्रत्येक वस्तु मे उसकी अपनी विशेषता तो होती ही है। पर्यायान्तरगत व्यक्तित्व भी प्रत्येक वस्तु मे जरूर होता है। इसलिए पर्यायदृष्टि से ज्ञान अनन्त कहा गया है। जैसे वस्तुएं अनन्त हैं तो उनके पर्याय भी अनन्त हैं। वे पर्याय अलग-अलग नजर भी आते हैं।
दूसरी ओर मात्मद्रव्य एक है, इसलिए उमका अपना ज्ञानगुण भी एक ही होना चाहिए । द्रव्य गुण का घर=आश्रयस्थान है। इस दृष्टि से गुण को अपने घर मे ही रमण करने मे क्षेमकूशन है, पर-घर जाने से क्षेमक्रूशलता नहीं रहती। जान अनेक होने से एक आत्मा के भी अनेक हो जाने की आपत्ति आती है। अत एकद्रव्यरूप अपने घर मे एक ज्ञान की ही स्वरूपरमणता मानी जाय, तभी क्षेमकुशलता रह सकती हैं और उसका अपना स्वरूप भी पूरा सुरक्षित रह सकता है। अन्यथा एक आत्मा अनेकरूप हो जाने से वह अपने एकत्वरूप-स्वरूप मे क्षेमकुशल नही रह सकती। फिर बहुत से ज्ञय तो परपदार्थ हैं, उनके साथ ज्ञानगुण द्वारा आत्मा जब पराये घर रमण करने जायगा तो ज्ञेयो की तरह ज्ञान और आत्मा को भी अनेकत्व प्राप्त करना पडेगा, जो उनके लिए मार है, अपमान है, स्वरूपच्युति है।
प्रश्न होता है-ज्ञान का स्वरूप एकत्व ही है, तब द्रव्य का ज्ञानत्व उसमे कैसे घटित होगा, क्योकि वह सब तक पहुंच न सकेगा? इसलिए अनन्तज्ञ य से अनन्तज्ञानरूप ज्ञानमय एक आत्मा अनन्त आत्मस्वरूप हो जाता है। गुण सहभावी होता है, पर्याय क्रमभावी होता है। सहभावी गण, (धर्म) की अपेक्षा से तीर्थ कर या सिद्ध अपने-अपने आत्मिक गणो मे निजपद मे आनन्दपूर्वक रमण करते हैं । इस प्रकार यहां द्रव्य का स्थायित्व और पर्याय मे परिवर्तन बताया।
परक्षेत्रगत ज्ञयने जाणवे, परक्षत्रे थयु ज्ञान, सुजानी ! अस्तिपणु निजक्षेत्रे तुमे कह्यो निर्मलता गुण मान, सुज्ञानी ! ॥४॥
अर्थ
पर (अन्य) के क्षेत्र में रहे हुए जानने योग्य (ज्ञ य) पदार्थ को जानने से ज्ञान परक्षेत्री हुआ । आपने ही कहा था--ज्ञान का निजक्षेत्र मे हो अस्तित्व है, यानी ज्ञान तो स्वक्षेत्र में रहने वाले आत्मा को ही होता है ।