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अध्यात्म-दर्शन
विचार करते हुए श्रीआनन्दधनजी गहरे विवाद मे डूब गये । वे अपना हार्दिक दुख इस गाथा के द्वारा वीतरागपरमात्मा के सामने व्यक्त करते हैं । स्वच्छसरल-सरसहृदय साधक प्रभु के सामने अपने मन में कोई गाठ नहीं रखता, वह अपने अबोध बालक की तरह प्रभु को माता-पिता समझ कर उनके सामने अपना हृदय खोल कर रख देता है- अपनी जैसी स्थिति, शक्ति, गति, मति है, उसे वह प्रभु के सामने प्रगट कर देता है। श्रीआनन्दघनजी ने जव उपर्युक्त साधना के विषय मे मथन किया तो वे प्रभु के सामने पश्चात्तापपूर्वक पुकार उठे-"प्रभो।
व मैंने आचारागादि शास्त्रो का गहराई से अध्ययन किया तथा सम्यक् श्रतज्ञान के सामर्थ्य से जो कुछ मुझे अनुभव हुआ है, उसे देखते हुए उस पर से जब मैं बोलता हूँ तो उक्त साधना के लिए जैसे सुगुरु चाहिए, वैसे अब तक मुझे नही मिले । मार्गदर्शन के बिना क्रियावचकता आदि कोई भी साधना यथार्थरूप से नही हो सकती । विश्वव्यापी ज्ञान की वडी-वडी बातें करने वाले, लच्छेदार भाषण देनेवाले, आत्मज्ञान की हीग हाकने वाले अनेक तथाकथित गुरु मिलते हैं, परन्तु शास्त्रो मे सृगुरुओ का जैसा वर्णन मिलता है, जो लक्षण आगमो मे बताये गए हैं, उनके अनुसार जब मे हृदय की कसौटी पर उन्हे कस कर जाचता-परखता हूं तो मेरी कसौटी मे वे खरे नहीं उतरते । यह मैं कोई अभिम - नवश नही कह रहा हूँ, नम्रतापूर्वक मैं अपने दुर्भाग्य को प्रगट कर रहा हूँ। गुरु तो सबको मिलते हैं, परन्तु शास्त्रो मे बताए (जिनके लक्षण आदि के सम्बन्ध में 'आगमधर गुरु समकिती · आदि के रूप मे शान्तिनाथभगवान् की स्तुति के प्रसग मे हम पर्याप्त विवेचन कर आए है । लक्षणो या गुणो के अनुसार वैसे सुगुरु का योग इस पचम (कलि) काल मे नही मिलता, एक प्रकार से ऐसे सुगुरुओ का तो दुप्काल सा ही है ।
मालूम होता है, योगी श्रीआनन्दघनजी के समय मे तथाकथित नामधारी सूरी आचार्य,उपाध्याय,गणी, साधु आदि की कमी नही थी, परन्तु उन सबमे उन्हे प्राय धनिकभक्तो की गुलामी, क्रियाकाण्डपरायणता, रूढिग्रस्तता, सत्त्वश्रद्धारहित त्रियाहीनता और आदम्बर, पद, प्रसिद्धि आदि की महत्त्वाकाक्षा दिखाई दी होगी, जिसके कारण अथवा उन्हे स्वय को उस समय के गुरुओ से बहुत ही क्टु अनुभव हुआ होगा। तभी खेद के ये उद्गार निकाले होंगे- "सुगुरु तथाविध न मिले रे