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________________ वीतराग परमात्मा के चरण-उपासक ४८१ काग्र य) करता है, वह क्रियाऽवचकता प्राप्त कर लेता है। क्रिया-अवचकता कैसे सिद्ध हो सकती है, इस विषय पे आठवें तीर्थकर की स्तुति मे भलीभांति विवेचन किया गया है, वहां से जान लें। इस प्रकार का अवचक-आत्मा कपट, कषाय, मोह, काम, रागद्वेषादि ६ रिपुओ से पराजित नहीं होता, सर्वत्र विजय पाता है और क्रिया-अवचक का यथार्थ उपभोग (आनन्दलाभ) करता है। जो लोग पुत्र, धन, परिवारादि तथा स्वर्गादि सासारिक सुख के लाभ के लिए दम्भयुक्त, प्रदर्शन के लिए, आश्रव एव पापसेवन करते हुए सावध, किन्तु तथाकथित धार्मिक क्रिया करते हैं, वे स्वपरवचना करते हैं, असत्य पदार्थ को ले कर सत्य को खोजते हैं । इसीलिए यहाँ कहा गया-'जे ध्यावे ते नवि वचीजे' जो उपर्युक्त विधि से ध्यान-क्रिया करता है वह वचित नही होता । इसके अतिरिक्त जो दम्भादिपूर्ण क्रिया अपनाता है, वह तो मायिक है ही, वचित होता ही है। श्रत १ अनुसार विचारी बोलु, सुगुरु तथाविध न मिले रे। किरिया करी नवि साधी शकीए, ए विषवाद चित्त सघले रे ॥ ॥षड्० ॥१०॥ अर्थ आचारागादि शास्त्रो (सूत्रो) मे जिस प्रकार कहा है, उसके अनुसार जब विच र करके वोलता हूँ तो तथाविध (जैसे होने चाहिये, वैसे) सुगुरु ढूढने पर भी नहीं मिलते। (सुगुरु के मार्गदर्शन के विना) अपनी इच्छानुसार क्रिया करते रहें तो जिस साध्य को साधना चाहते हैं, उसे साध नहीं सकते । अथवा ऐसे किसी सद्गुरु का योग मिला नहीं है, जिनके सहयोग से पूर्वोक्त क्रियाऽवचकयोग साध सके । यह सब विषवाद (विषाद या दुख) सभी मुमुक्ष ओ के चित्त मे है अथवा मन मे सब जगह ऐसी दुविधा-सी स्थिति रहा करती है । भाष्य क्रियावचकयोग के लिए सुयोग के अभाव का हार्दिक खेद पूर्वगाथा मे जिस क्रियाऽवचकता की प्राप्ति का उल्लेख था, उस पर ___ १ 'श्रुत' के बदले कही कही 'सूत्र' शब्द मिलता है ।
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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