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वीतराग-परमात्मा के चरण-उपासक
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यही वात वैचारिक क्षेत्र मे वीतराग के चरण-उपासक के लिए समझ लेनी चाहिए। उसे अपनी दृष्टि से प्रत्येक दर्शन के सत्याश को कथचित् रूप मे अमुक नय की दृष्टि से ग्रहण करके उसे यथायोग्य स्थान देना चाहिए, दूसरे चाहे उस रूप में माने या न मानें ।
सत्यग्रहण करने के लिए वीतराग-उपासक को इतना नम्र, मृदु, और सरल होना चाहिए कि वह चाहे जहां से भी सत्य, मिलता हो, ग्रहण कर ले।
भगवती सूत्र आदि आगमो मे अनेक विचारधाराओ एव आचारधाराओ का समन्वय किया गया है. जो वीतरागदर्शन की परम उदारता का सूचक है। यहां भी श्रीआनन्दधनजी ने जैनदर्शन के सिवाय छही दर्शन को वीतराग परमात्मा के अग बता कर यह भी सूचित कर दिया है कि ये समय-पुरुष के अग है। जैसे दो हाथ, दो पर, पेट और मस्तक ये शरीर के ६ अग हैं. वैसे ही छह दर्शन जिनवर के एक-एक अग हैं। जैसे शरीर के इन अगो मे से कोई भी अग काटने पर प्राणी अपाहिज कहलाता है, वैसे ही ६ दर्शनो मे से किसी भी दर्शन को काट डालना-खण्डन करना जिनवर के अग को काटना है । यह यह दुर्भवी का लक्षण है । मुख्यतः दर्शन ये हैं-बौद्ध, नैयायिक, साख्य, वेदात लोकायतिक [चार्वाक ] और जन । इन छही दर्शनो मे से प्रत्येक के मुद्दो को भलीभांति समझ कर उनकी किसी प्रकार की निन्दा, खोटी आलोचना, या व्यर्थ की टीका-टिप्पणी न करना। जितने अशो मे जिस दर्शन ने सत्य की प्ररूपणा की है, उतने अश मे उसे अपना कर उसे उचित स्थान देना । बल्कि वाणी से भी यह प्रगट करना कि ६ दर्शन वीतरागप्रभु के पृथक्-पृथक् अग हैं, और अमुक अग के रूप मे ही उपयोगी हैं, उसे उतने अश सत्य के रूप मे उपयोगी समझ कर उसकी यथायोग्य स्थान पर स्थापना करना और उसे अपनाना उचित है। किन्तु द्वेष-घृणावश अन्य दर्शनो की खोटी आलोचना करना, अथवा उनका खण्डन करना अनुचित है। सत्य दो प्रकार के हैंसर्वसत्य और दृष्टिविन्दुसत्य । जनेतर दर्शनो मे सर्वसत्य नही है, परन्तु दृष्टिविन्दु तक तो वे सच्चे हैं ही, ऐसा मानने में व्यवहारदक्षता है।, वीतरागप्रभु का चरणसेवक इस प्रकार पड्दर्शन को स्वीकार करता है । वीतरागप्रभु की भी परमकारुणिकता है कि वे ६ ही नही, दुनिया की तमाम विचार