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अध्यात्म-दर्शन
धाराओ को अपने दर्शन मे समाविष्ट कर लेते हैं । साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया है कि छही दर्शनो की आराधना करने में वीतराग के चरणसेवको (जैनो) को कोई हर्ज नहीं है । इसके पीछे दृष्टिकोण यह है कि नंगमादि सात नयो मे से दूसरे नयो की अपेक्षा रख कर एक नय से कपन करने वाला जैनदर्शन का आराधक है। इसके विपरीत ७ नयो में से सिर्फ एक नय पर आग्रह रख कर अन्य नयो के प्रति उपेक्षादृष्टि रखना, जिनाना से विरुद्ध है।
अत. अगली गाथामो मे श्रीआनन्दघनजी यह विवेक बताते हैं, जिनप्रवचनतत्त्वज्ञान के षड्दर्शनरूप मगो में से किस दर्शन का क्सि अवयव पर किस नय की दृष्टि से न्यास [स्थापन] करना चाहिए ,
जिनसुरपादप पाय बखायो, सांख्य-योग दोय भेदे रे । आतमसत्ता विवरण करतां, लहो दुग अंग अखेदे रे॥ षड्०॥२॥
अर्थ राग-द्वेषविजेता वीतराग परमात्मारूपी या जनदर्शन के समयपुरुषरूपी कल्पवृक्षके दो मूल अथवा वीतराग परमात्मा के कल्पवृक्ष-समान दो पैर के तुल्य सांख्यदर्शन और योगदर्शन इन दोनों को कहना चाहिए । ये दोनो आत्मा की सत्ता [मात्मा के अस्तित्व का विवरण [ब्योरा= विवेचन] करते हैं। इसलिए इन दोनो की जोड़ी को बिना किसी खेद या सकोघ के जिनमत या जिनभगवान के दो अंग(दो पैर) समझो अथवा स्वीकार कर लो।
भाष्य
जिन-कल्पवृक्ष के दो मूल अथवा दो पैर 'जिन-सुर पादप पाय' पद के दो अर्थ निकलते हैं-एक तो यह कि जिनेश्वररूपी कल्पवृक्ष दो पैर (मूल) और दूसरा अर्थ यह होता है कि जिन-वीत राग के कल्पवृक्षल्प दो पर । कल्पवृक्ष का दोनो के साथ सम्बन्ध है। कल्पवृक्ष वह दिव्यतरु होता है, जिसके नीचे बैठ कर मनोवाछित पदार्थ प्राप्त किया जा सकता है। जिनभगवान् कल्पवृक्ष के समान हैं, उनमे सभी दर्शनो का अस्तित्व है, अथवा जिन शब्द से यहां उपलक्षण से जिनेश्वर का - अनेकान्त