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अध्यात्म-दर्शन . छोड़ दे और अन्तरात्मा मे हृदय और बुद्धि को एकाग्र कर दे, यानी शरीर, शरीर के अगोपाग, परिवार, धन, जमीन, जायदाद आदि म्यावर-जगग पदार्थ मेरे नहीं है, म उनना नहीं हूँ, मेरे गुण, स्वभाव, कार्ग आदि अनने भिन है, , ये नव पदार्थ या मयोग सम्बन्ध, क्षणिर है. नाशवान है. मैं अपने स्वभावम्प अधिनागी है। शुभाशुभ कर्मो को योग के पारण मेग और इनका मिलन (गयोग) हो गया है। मंग ग्वभाव न नयको जाननेदेखने (ज्ञाता-द्रप्टा) का है। इस प्रकार अन्तरात्मभान में अपने आपको स्थिर कर दे।
इस प्रकार अन्तगत्मभाव में एकाग्न होने पर अपनी आत्मा में महनिंग परमात्मत्व का विचार करना चाहिए। जर्थात्-प्रतिदिन यह विचार करे कि मेरी आत्मा ही (शुद्ध होने पर) परमात्मा है। निश्चयदृष्टि से मेरी आत्मा शुद्ध, है बुद्ध हैं, ज्ञाता है, द्रप्टा है, अनन्त ज्ञान-दर्शन-वीर्य-सुखमय है । मैं इन सब बाह्यभावो, अनात्मभावो मे परे है, मेरे अंग, स्वभावज या नहजात नहीं है। ये सव मयोगज है, तेरे से भिन्न है। इस प्रकार परमात्मत्व में आत्मत्व को विलीन कर देना, नद्र प-तन्मय-तदात्मभावी से भावित कर देना ही सच्चे माने मे सर्वांगीण आत्म-समर्पण है । इसमें एकमात्र आत्मभाव ही रहता है, नियालिन आत्मनिष्ठा ही रहती है तात्पर्य यह है कि परमात्मा में अन्नगत्मा का समपंण होने में परमात्मपद मिलता है, सर्वनोभावेन आत्मसमर्पण करने का यही सवम उत्तम फल है । यही आत्मसमर्पण की नर्वोत्तम, मरलतम विधि है । इसी पर मे परमात्मरूपी मैदान में आत्मसमर्पण के खिलाडी का सच्चा दाव लग सकता है । यही परमात्मभावप्राप्ति का मच्चा उपाय है।
आत्मा को शरीरादि से भिन्न मान कर पृथक-रूप मे उसको वास्तविक रूप मे पहिचाने विना केवल नाटकीय ढग मे अथवा औपचारिकरूप से किसी भी वीतरागप्रभु के केवल नाम जप. जयकार, या नृत्यगीन-भजन के द्वारा उनने चरणो मे आत्मसमर्पण मानना वुद्धिभ्रम है, ऐमे कच्चे आत्मसमर्पण या गच्ची भक्ति का परिणाम यह आता है कि वाह्यस्प मे आत्मार्पण कर देने पर भी उनमे परिवारिक, सामाजिक, राष्ट्र,राष्ट्र के, जाति-जानि के, धर्मसम्प्रदायो के आपमी अगडे, रागद्वेप, मोह, म्वार्थ और चैरविरोध चलते रहते है, यानी वे अन्तर गे पूरे पहिरात्मा बने रहते है। और इस प्रकार गे वहिरात्गभाव ग