SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परमात्मा के चरणों में आत्मसमर्पण १२३ रहते हुए नाटकीय ढग से परमात्मा के चरणो मे समर्पण करने वाला व्यक्ति परमात्मभाव प्राप्त नहीं कर सकता। अब अन्तिम गाथा में परमात्मा के चरणो मे आत्मसमर्पण का वास्तविक लाभ बताते हुए श्री आनन्दघनजी कहते है-- आतम-अर्पण वस्तु विचारतां, भरम टले, मतिदोष, सुज्ञानी ! परमपदारथ संपति संपजे,-'आनन्दघन'-रसपोष, सुज्ञानी ! सुमतिचरण० ॥६॥ अर्थ परमात्मा के चरणो मे आत्मसमर्पण के वस्तुतत्व का विचार करने से भ्रान्तियाँ, बहम या आशंकाएँ टल जाती है, बुद्धि के दोष (छद्मस्थ अवस्था के कारणरूप) नष्ट हो जाते हैं और अन्त मे,मोक्षरूप परम पदार्थ एवं अनन्तज्ञानादि परम सम्पत्ति प्राप्त हो जाती है, जो अखण्ड शान्ति, शाश्वत एव परिपूर्ण आनन्द के रस की पोषक होती है। भाष्य आत्मसमर्पण के वस्तुतत्व का विचार वास्तव मे आत्मसमर्पण का मच्चा लाभ साधक तभी उठा सकता है, जव पूर्वोक्त प्रकार मे आत्मार्पण का स्वरूप समझे, उसके यथार्थ तत्व पर मनन चिन्तन करे । आत्मा क्या है ? क्या शरीर आत्मा है ? मन, बुद्धि, चित्त, अहकार, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि आत्मा है या आत्मस्वभाव है ? क्या शरीर के अगोपाग आत्मा है ?, या शरीर से सम्बन्धित परिवार, जाति, धर्मसम्प्रदाय, राष्ट्र, प्रान्त आदि आत्मा हैं ? अथवा धन, धाम, जमीन, जायदाद आदि आत्मरूप है ? अथवा कर्म, राग, ममत्व आदि आत्मा है ? इन सवका भलीभाति विश्लेपण -पृथक करके भेदविज्ञान करना आत्मा के वस्तुतत्व का विचार है और वहिरात्मभाव को,छोड कर अन्तरात्म-भाव में स्थिर हो कर परमात्मतत्व मे लीन हो जाना, तादाम्यभाव से भावित होना समर्पण के वस्तु तत्व का विचार है । इस प्रकार आत्मसमर्पण का यथार्थ तत्व सोचे, विचारे एव तद्रूप ध्यान करे। यथार्थ चिन्तनपूर्वक आत्मसमर्पण से विविध लाभ आत्मसमर्पण गर सागोपाग विचार करने से सब भ्रान्तियां अपने आप
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy