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अध्यात्म-दर्शन
है, वे तो परमसमभावी है, परन्तु जो साधक आदर्श गुणी बनना चाहता है, उसके लिए सर्वोच्च गुणो का आदर्श (Model) सामने होना चाहिए। ताकि आदर्श को देख कर स्वय भी अपने जीवन को आत्ममुणो से सजा मके, अथवा आप जैसे गुणस्पी पारसमणि के धनी का स्पर्श करके या आपका ध्यान, जप, गुणगान आदि करके अपने जीवन को गुणरूपी स्वर्ण से जटित कर सके । अगर साधक आपके गुणो का क्रमश स्मरण करता है, उन गुणो को प्राप्त करने का उपाय, उन गुणो की प्राप्ति के मार्ग में आने वाले विघ्न, उन गुणो की स्थिरता का मापदण्ड आदि पर मतत तलस्पर्शी चिंतन करता है और तदनुमार अपने जीवन को ढालता है तो नि मन्देह एक दिन वह भी मात्मगुणो के सर्वोच्च शिखर पर पहुंच जाता है। साधक को परमात्मा मे निहित सर्वोच्च गुणो पर इस प्रकार चिन्तन-मनन-निदिध्यामन, ध्यान, जप, गुणगान आदि करने से जव वे सर्वोच्च हस्तगत हो जाते हैं तो उनके बार-बार ससार मे जन्म-मरण का दुख, साथ ही गुणो के अधूरे विकास के कारण राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि प्रवल दुगुणो का सामना करने मे हार खानी पडती थी, हर बार उनका गुलाम बनना पडता था, अपनी दुर्बलताओ के कारण उन दुर्गुणो का शिकार बन जाता था, किन्तु उन सर्वोच्च गुणो पर आधिपत्य प्राप्त हो जाने पर ये सव दुख, द्वन्द्व, व्यथाएँ, बाधाएं और पोडाएं काफूर हो जाती हैं, माधक परमात्मा को प्राप्त कर लेता है, गुणो में परमात्मा के ममान बन जाता है तो परमात्मा के साथ वह निकटता स्थापित कर लेता है, जो उनका स्थान है, वही शाश्वत शान्ति का धाम उसे प्राप्त हो जाता है। इमीलिए योगीश्री के अन्तर से स्वर फूट पडा-"निजगुणकामी हो, पामी तुं भणी, ध्रुव-आरामी हो याय, सुज्ञानी ।' वह ध्रुव-आरामी बन जाता है, सदा के लिए जन्म, जरा, मृत्यु, व्याधि, शोक, शारीरिक-मानसिक सताप आदि सभी झझटो से वह बच जाता है, मदा के लिए आराम पा जाता है, अपनी आत्मा मे ही रमण का अनन्त ध्र व आनन्द उसे मिल जाता है। यह कितना बडा लाभ है, वीतराग पार्श्वनाथ के गुणानानुवाद से सर्वोच्च गुणो की उपलब्धि का । श्री आनन्दघनजी ने इसी उद्देश्य से पार्श्वनाथ-जिनस्तुति मे इन सूत्रो को ग्रथित किया है।