________________
आत्मा के सर्वोच्च गुणो की आराधना
इन्ही सब कारणकलापो को ले कर वीतराग-परमात्मा बनने के लिए शुद्ध आत्मगुणो का अपने में विकाम करके प्रभु पार्श्वनाथरूपी पारसमणि के साथ स्पर्श कराना होगा।
परमात्मा किन-किन सर्वोच्च आत्मगुणो से ओतप्रोत हैं ? इसे क्रमशः बताते हैं । सर्वप्रथम उनके लिए कहा गया है--ध्रुवपदरामी--यानी वीतराग पार्श्वपरमात्मा ध्रवपद यानी निश्चल आत्मपद अथा शैलेशीकरणरूप आत्मा की सर्वथा निश्चलस्थिति प्राप्त होने के बाद मोक्षपद मे आप सतत रमण करने वाले हैं । स्वामी माहरा--आप मेरे स्वामी हैं। जब कोई प्रभु को अपना स्वामी बनाता है, तव स्वाभाविक ही वह सेवक बन गया । सेवक को अपने सेव्य (स्वामी) की सेवा में तैनात रहना चाहिए। इससे काव्यरचयिता ने अपनी नम्रता भी आत्मगुणो की सेवा मे सतत जागृत रहने की बात से सूचित कर दो है। जो आत्म गुणो को प्रगट करना चाहते हैं, वे आपको अपना स्वामी बना कर मोक्षरूप शाश्वतस्थान मे आराम (शान्ति, पाने वाले बन जाते हैं। आप नि:कामी हैं। आपको किसी वस्तु या प्राणी से किसी प्रकार की कामना नहीं है। फिर भी आपका सम्पर्क भव्यजीवो एव आत्माथियो को अपने समान वना देता है। आप ज्ञानादि अचिन्त्य भनेक गुणो के राजा है। गुणो का गजा वही हो सकता है, जो उन गुणो पर अपना आधिपत्य रखता हो । आपका आधिपत्य ज्ञानादिगुणो पर है। इसलिए कहा गया—'गुणराय'
परमात्मा की आराधना : गुणो की आराधना से प्रश्न होता है, उपयुक्त पक्तियों में परमात्मा के सर्वोच्च गुणो का वर्णन किया गया, उससे क्या लाभ ? कोरा गुणगान करने में अपना समय और शक्ति क्यो लगाई जाय ? इमी के उत्तर मे श्रीआनन्दघनजी ने कहा है--"निजगुणकामी हो, पामी तु धणी, ध्रुव-आरामी हो थाय, सुज्ञानि ।' अर्थात् जो साधक अपने गणो का विकास करने के इच्छुक हैं । वे आप जैसे गुणो के सर्वोच्च शिखर को पा कर या आप सरीखे गुणरूपी पारसमणि (धनी) का स्पर्श पा कर शाश्वतरूप से आत्मा मे रमण करने वाले या शाश्वतशान्ति के उपभोक्ता बन जाते हैं। निष्कर्ष यह है कि पार्श्वनाथस्वामी जैसे सर्वोच्च गुणसम्पन्न वीतराग को तो अपने गुणगान या अपनी प्रशसा से कोई मतलब नहीं