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२३ : श्रीपार्श्वनाथ-जिन-स्तवनआत्मा के सर्वोच्च गुणों की आराधना
(तर्ज-राग सारंग, रसियानी देशी) ध्रवपदरामी हो स्वामी माहरा, नि कामी गुणराय, सुज्ञानी । निजगुणकामी हो पामी तु धरणी, ध्रुव आरामी हो थाय, सुज्ञानी ॥१॥
अर्थ हे पार्श्वनाथ भागवन् । आप हमारे स्वामी हैं। आप ध्रुव (अचल) पद (आत्मपद या मोक्षस्थान) मे सतत रमण करने वाले हैं। आप निष्काम (कामना या काम से रहित) हैं, गुणों (शुद्ध आत्मा के दर्शन, ज्ञान, वीर्य = शक्ति और सुख आदि अनन्त गुणो) से विराजित-सुशोभित हैं । या गुणो के राजा हैं। आप निज (आत्मा के) गुणो=ज्ञानादि गुणो के ही इच्छुक हैं या ज्ञानादि गुणो से कमनीय हैं। अथवा मैं निजगुणकामी आप जैसे को स्वामी (पति =अन्तर्यामी) बनाने वाले या आपको पा कर सुज्ञानी-भव्यजीव आपके समान ध्रुव पद (अचल स्थान) पाते हैं अथवा अचल पद मे आरामी=(आराम करते) हैं अथवा आत्मा के अनन्त गुणों में रमण करने वाले बनते हैं ।
भाष्य
सर्वोच्च आत्मिक गुणो के पुज परमात्मा इस स्तुति मे श्रीआनन्दघनजी आत्मा के सर्वोत्तम गुणो को परमात्मा मे वता कर परमात्मा के उपासक को आत्मा के सर्वोच्च गुणो की आराधना के लिए प्रेरित कर रहे हैं। परमात्मा का नाम पार्श्वनाथ है। पाश्वमणि, एक प्रकार का स्पर्शमणि होता है। जिसके साथ लोहे का स्पर्श होते ही वह सोना वन जाता है। इसी प्रकार शुद्ध और सर्वोच्च आत्मगुणो का परमात्मा से स्पर्श होते ही वह व्यक्ति भी परमात्मा बन जाता है। बात्मगुण शुद्ध होने चाहिए, अन्यथा अगर वे पूर्ण विकसित न हो, उन गुणो मे कुछ दोषो का पुट हो तो मलिनता के कारण परमात्मारूपी पारस से उन मलिनतायुक्त आत्मगुणो का स्पर्श होने पर भी वह व्यक्ति शुद्ध स्वर्णसम परमात्मा नही बन सकेगा।