SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ এল-বাল करे, तब भाव से सूक्ष्मपुद्गलपरावनं संता है। बाद बीन में दूसरे अध्यवसाय स्थानो ना मरण में पर्ण गरेनी उंगे गुदग T० नहीं माना जाता। प्राणी ने ऐगे अनन्त पुद्गतगरनन किये । प्रसार पाल अगणित पुद्गलपरावर्ननो से प्रवाह ग वर, अब ना पंदे गाना साया है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाप में जो पुद्गरगवतंन पर बताए , वो वादर (म्यूल) परावर्तन वताए है, सूक्ष्म पुद्गनगन नो अनन्त वार लिय होगे। तात्पर्य यह है मूक्ष्म पुद्गल-गवर्तन र विचार करें तो दम कोटाकोटी मागरोपमकान की एक उत्यगिणी ोती है. उगः प्रथम समय में मरण हो, उनके बाद दूसरी उन्सर्पिणी के ठीक गरे नगर में मरण हो, वहीं गिना जाता है । वीच मे व्युत्लम मे जितनी बार मरण हा. वे व्ययं गा । वे सूक्ष्म पुद्गलपरावर्त की गणना में नहीं आते। जग प्रकार, फे अनन्त गुदगनपरावर्त हो चुकने के बाद जब गगार में भट याने भटमरी प्राणी TT निम पुद्गलपरावर्त आए, तब उसे ओघदृष्टि हट कर योगदृष्टि मान होने लगती है। परमात्ममेवा की प्राथमिक भूमिका (योग्यना) हो जाने पर गाधर को उम 'चरमपुद्गलावर्त' का लाभ मिलता है । यह भी पर प्रसार ती 'कालनधि' है। दूसरी उपलब्धि चरमकरण म ससार में उपर्युक्त कयानानुसार अनल गुदगलपगवर्ननमाल नक प्राणी अवोधदशा में भटकता रहता है। वह गगद्वेप में गाट गम्न, मसारगमिका हो कर जनेक प्रकार की स्यूल और मूदम यातनाएं गहता है। गट्ने में मे निकल कर दूगरे में गिरता है। कई दफा देवगनि म जन्म ल बर म्यून मुखो का अनुभव करता है, तथा अनेक वार नरकगति में पैदा हो कर महायातनाएँ महता है। कई बार तो एक बार आख मूद कर चोले, उतने समय मे १६-१६ बार जन्ममरण होता है। परन्तु जहाँ तक नम्यग्दृष्टि प्राप्त नहीं होती, वहाँ तक पीद्गलिक पदार्यो-परभावो मे ही वह आनन्द मानना है , परभावी मे रमण का वह आदी हो जाता है। परन्तु जब किसी जिज्ञासु को यथार्थ मार्ग पर आना होता है तो उसकी ओघदृष्टि नष्ट हो कर योगदृष्टि खुल जाती है । वह चरम पुद्गनपरावर्त तक आ पहुँचता है।
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy