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________________ परमात्मा की भावपूजानुलक्षी द्रव्यपूजा १६७ निरन्तर करता रहता हूँ। मेरा चैतन्य जड़ के सामने झुक जाता है, दव जाता है, वह अखण्डित नहीं रह पाता, अन अपने शाश्वत और अविनाशी (अक्षत) आत्मनिधि को पाने के लिए मैं आप (परमात्मा) के चरण-शरण में आया है। इसके पश्चात् पुष्प-मगर्पण के गमय यह भावना करनी है कि जैसे पुष्प कोमल होता है, खिलता-खिलाना है, हलका-फुलका होता है, नम्रतापूर्वक समपित हो जाता है, वैगे ही हग भी कोमल (निरभिमान, मदरहित) हो कर खिलेखिलाएँ (आत्मविकास करे-कराएं), बाह्य चिन्ताओ के बोझ से रहित हो कर अपनी जिन्दगी हलकी-फुनकी विताएँ, विश्वोद्यान को शोभायमान बनाने के लिए अपना जीवन नम्रतापूर्वक कपटरहिन हो कर ममर्पित कर दें । फूल की तरह गर्दन नुचवा कर तथा मर्मभेदी सुई का-सा छेदन मागभावपूर्वक स्वीकार करके परमात्मा के चरणो मे समर्पित हो जाय । निश्चयदृष्टि मे पुष्प-समर्पण के गमय यह भावना करे कि हमारी आत्मा कुटितता (माया, मिथ्यादर्शन) मे रहित हो कर, पुष्प की तरह सुकोमल हो, म्वम्वरूप की सुवारा में रमण करें। स्वम्बरुप का चिन्तन हो, चैमा ही सम्भापण हो, वृत्ति मे भेद न हो । निजगुणो मे स्थिरता हो । दीपक के गमय भावोद्वोधन इस प्रकार करे कि दीपक स्नेह से -चिकनाई से भरापूरा है, वह स्वय जल कर मरो को प्रकाश देता है। इन्ही विशेपताओ के कारण उसे पूजा मे स्थान मिला-हे । इसी प्रकार हम भी अपने अन्त करण मे असीम स्नेह, सद्भाव भर कर परमार्थ के लिए बढ-चढ कर - त्याग, बलिदान करे, कष्ट सहे, स्वय ज्ञान से जाज्वल्यमान हो कर दूसरो को , ज्ञान का प्रकाश दे । जिनकी दृष्टि उत्कृष्ट आदर्शवादी, ऊद्धवगामी है, वे ही जीवन्त दीपज्योति कहे जा सकते हैं । हम भी परमात्मा के आदर्शपथ पर चल ": कर उनके कृपाभाजन वने । धूपवत्तो मे अग्निस्थापना भी प्रकारान्तर से दीपक की आवश्यकता-पूर्ति करती है, उसकी भी यही प्रेरणा है। निश्चयदृष्टि मे दीपक-समर्पण के समय यह चिन्तन हो कि प्रभो ! अव * तक मैंने जग के जड-दीपक को ही उजाला समझा था, किन्तु वह तो आधी - के एक ही झोर मे घोर अधकार बन जाता है। अत प्रभो | इस नश्वरदीप
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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