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अध्यात्म-दर्शन
प्रारम्भ होना है, तब गमन न्या ही गिनने लगते हैं। सूत्र में न तो कमान पुप्प को मिलाया और न उन मुजारा फूलो की अदर उसने ना गाक्षात मीधा परिवर्तन ही किया । पूल का जितना फूल की अपनी फिया । यहाँ सूर्य प्रेरकनिमित्त नहीं नटम्बनिमित है। किन्तु पर पुम्भकार जिग समय घडा बनाता है, तब वह च्यापूर्वर ही बनाना है। अतः यह तदन्यनिर्मित नहीं, प्रेस निमित्त है। मछली नव जन में नरमी है, नो मरने का काम मछली स्वय ही करती हैं। जन तैग्ने की क्रिया का उपादान म्यय मछली ही है, क्योकि उनी में क्रिया हुई। किन्तु मल्य गी तरणनिया में निश्चय में धर्मास्तिकाय और बवहार में जन निमित्त होता है।
उपादान और निमित्त की समस्या तनी गहन है कि उसे गमलना उनना आसान नहीं है । फिर भी यदि उपादान को पा लिया जाय तो गमन्या हल होते देर नहीं लगती । सम्यग्दृष्टि आत्मा को मूल दृष्टि उपादान पर केन्द्रित रहती है । यद्यपि वह निमिन का निरस्कार नहीं करता, तथापि वह निमित्त में उलझ कर नहीं बैठ जाता । निमिन तो गदा उन्धित रहना ही है, देर उपादान की ही होनी है।
गक्ति बाहर मे नहीं अपने अन्तर में रहती है। जो व्यक्ति अपनी गक्ति को जागृत कर लेता है, वह जगत् में अमाधारण समझे जाने वाले कार्य कर लेना है । अन्दर की गति को जागृत करने का अर्थ है.--उपादान को जागृत करना । जिस बात्मा ने उपादान को गमत लिया, उन आत्मा के लिए कोई भी सावना कठिन नहीं है।
प्रस्तुत प्रमग मे परमात्मसेवारूप कार्य है। उसके लिए मादानवारण आत्मा है। अभय, अद्वे प.और असेद ये आत्मा के सहभावी गुण होने से सहकारी उपादानकारण है। किन्तु प्रकारान्तर -से उन्हें परमात्मसवारूप कार्य के अन्तरंग निमित्तकारण कहा जा सकता है । और पूर्वगाथा मे बताए हुए तीन कारणों मे मे अकुशलवृत्ति का ह्रास अन्तरंग-निमित्त व पाप घातक साधुओ से परिचय, तया आध्यात्मिक गन्यो का श्रवण, मनन एव नयहेतु-पूर्वक परिशीलन ये दो परमात्मसेवास्प कार्य के प्रेग्क निमित्तकारण है, जबकि कान, स्वभाव, नियति, फर्म, पुरुषार्थ आदि इसके नटन्य (उदामीन)