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________________ १४४ अध्यात्म-यांन रूप में अभिव्यक्त करने हैं कि परमात्मा और आत्मा के बीच मे दूरी डाउन वाले कर्म रज का जव एक रण-भी नहीं रहेगा, तब यह आनन्दमय आत्मा-मरोवर परमशान्त सुधारन ने लवालब भर जायगा। क्योकि अब नक आत्मा को जतृप्नि थी, वह सदा के लिए समाप्त हो कर माश्यत पग्मनृप्नि प्रान हो जायगी। उसके आनन्द का क्या ठिकाना ! जब जीव गुणकरण की प्रक्रिया द्वाग सवरधम के वारण नमश. पानीकर्मों का क्षय कर देना है, तब केवलनान, केवलदर्शन, चलसुन और आत्मानन्द का बल प्राप्त कर ही लेना है। तव उसके केवल नाम-गोवादि चार कर्म वाकी रह जाते हैं, नगर आयुकर्म गे नाम-गोत्र के कगंदल अधिना हो तो उन्हें आयुप्य के बरावर करने के लिए वह केवली-ममुद्घात करना है, जिससे जो जोव एक समय अगुल के जगल्यानवे भाग गरीर में मंद था, वह अब लोकव्याप्त हो जाता है। इसी कारण श्रीआनन्दघनजी को बहना कहना पडा-जीव-मरोवर अतिशय वाधशे रे आनन्दधन-रसपूर। गरोवर में कमल खिले हुए होते हैं, उनका स्वभाव जल की सतह से ऊपर रहने का होता है । जव सरोवर में पानी बढ़ जाता है तो कमन भी बढ जाते हैं, फूल जाते है। यह एक प्राकृतिक नियम है कि ज्यो-ज्यो सरोवर में पानी वटता जाता है, लो-त्यो कमल अपने रूप, रस और रग को न बिगडने दे कर बढना जाना है। इनी प्रकार ज्या-ज्यों गुणकरण द्वारा सवरधर्म-सेवन से परमात्मा और मात्मा के वीत्र का अन्नर टुटना जाता है, त्यो त्यो जीवमरोवर में आत्मज्ञानरूपी जल बढना जाता है और आत्मज्ञानरूपी जन के वृद्धिंगत होने के माय-याय आत्मानन्द-कमल में भी वृद्धि होती जाती है। गुणकरण की अधिकता मे वही जीवात्मा अपने ज्ञान को लोकालोक में व्याप्त कर देता है और वह आत्मा परमात्मा में लीन हो कर सदा के लिए लोक के अग्रभाग पर जा कर विराजमान हो जाती है। और तब वह आत्मा सदैव निजानन्दसमूह के रम ये परिपूर्ण हो कर परम तृप्त हो जाती है। साराश इम स्तुति के आरम्भ मे श्रीआनन्दघनजी ने दो प्रश्न उठाए थे- पर r
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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