SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 155
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्मा और परमात्मा के बीच अतर-भग तभी उसके कर्मों का विच्छेद होगा और वह परमात्मा के निकट पहुँचेगा। अव तक वह आत्मभाव की उपेक्षा करके विभाव-भाव मे मग्न हो कर उलटा पुस्पार्थ करता रहा, इसी से कर्मवन्ध हुआ, जिससे परमात्मा से उसका अन्तर पडा। कर्म वांधने का पुम्पार्थ करने वाला भी तू है, तो कर्मों को क्षय करने का पुरुपार्थ करने वाला भी तू ही है। । पूर्वोक्त गाथा से यह स्पष्ट हो गया कि जीव के साथ लगे हुए प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप से मूलप्रकृति और उत्तरप्रकृति तथा घाती व अघाती के रूप में जो वन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता के रूप मे स्थित कर्म है उन्ही के कारण ही परमात्मा और जीवात्मा मे अन्तर है । अत कर्मों का विच्छेद होने पर ही जीवात्मा-परमात्मा के बीच का अन्तर टूट सकता है। इतना स्पष्ट कर देने के बावजूद भी यह शका होती है कि आत्मा तो शुद्ध, बुद्ध, निर्लेप है, उस पर कर्म आए ही क्यो ? आए हैं तो वे कव से आए है ? कर्मपुद्गलो के साथ आत्मा का सयोग कब से है ? पहले कर्म था या पहले आत्मा ? यहाँ आत्मा मसारी कव से बनी, कव तक रहेगी ? आत्मा के साथ कर्मों का मम्बन्ध किस प्रकार का है ? इन दोनो का सम्बन्ध कौन जोडता है ? इन सब शकाओ का समाधान श्रीआनन्दघनजी अगली गाया मे करते है कनकोपलवत्, पयड़ी पुरुषतरणी रे, जोड़ी अनादि स्वभाव, अन्यसंजोगी जिहाँ लगी आतमा रे, ससारी कहेवाय ॥ पद्म० ॥३॥ अर्थ अनादिकाल से अपने स्वभाव से जैसे सोने का टुकड़ा और मिट्टी दोनो जुड़े (मिले) रहते है, वैसे ही सोने सरीखी आत्मा जब तक दूसरे (कर्मादि) के साथ जुड़ी हुई है, तब तक वह संसारी कहलाती है। भाष्य - यहाँ मुख्यतया यह बताने का प्रयास किया है कि आत्मा अपने आप मे शुद्ध वुद्ध होते हुए भी जव तक शरीर के साथ सम्वद्ध है, तव तक उसका परमात्मा के साथ मिलना दुष्कर है। दूसरी बात यह बताई गई है कि कर्म और आत्मा का यह मय सम्बन्ध ऐसा नहीं है कि आत्मा कर्मो के साथ तद्रूप बन गई हो, ऐसा होने पर तो कर्मों का आत्मा मे अलग होना ही असम्भव हो
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy