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परमात्मा से आत्मतत्त्व की जिज्ञासा
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एक पदार्थरूप कारण से ताररूप कार्य उत्पन्न हआ । और उस तार मे से एक कहा बना लिया गया । इस तरह तार अब पर्याय होते हुए भी कारण बन गया और कडा हो गया कार्य । परन्तु मगर लोहा सदैव, नित्य एक अखण्डस्वरूप मे ही रहे तो उसमे से तार या कहा कैसे बन सकते हैं ? इसी प्रकार प्रत्यक्ष भौतिक विज्ञान के अनुसार घटित होने वाले कार्यकारणो को देखते हुए कुछ न कुछ . सगति विठानी ही पडेगी। जिस किसी भी तरह से आप (एकान्त नित्यवा- . दी) कार्यकारणभाव बताएंगे, उसमें आपको अपने एकान्त नित्यवाद की मान्यता को काल्पनिकरूप से, चाहे वास्तविक रूप से बदलना ही होगा। इसके बिना कोई चारा ही नहीं है । आत्मा को नित्य मानने मे हमे कोई आपत्ति नहीं है लेकिन उनमे जरा भी परिवर्तन किये बगैर एकान्त नित्य मानने में आप सफल नहीं हो सकेंगे । अत विश्व मे प्राणियो मे होने वाले परिवर्तनो की सगति बिठाने के लिए आत्मा को कयचित् अनित्य मानना ही पडेगा । अगर कथचित् अनित्य नही मानेंगे तो कार्यकारणभाव से इन्कार करना पडेगा । यह तो वीज के विना फल पैदा करने के समान होगा। एक जाति के नर और मादाप्राणियो से दूसरे प्राणियो की उत्पत्ति तथा बीज से अन्न वगैरह की उत्पत्ति प्रत्यक्ष होती देखी जाती है, उसके (फल के) बिना ही काम चला लेना होगा।
यदि कहे कि ये सब बातें काल्पनिक है, भ्रम हैं, स्वप्नवत् आभास या अविद्याजनित अध्यास है, तव तो सारी दृश्यमान सृष्टि अविद्याभामित भ्रान्ति हो जाएगी। फिर सवाल होगा कि ब्रह्म के सिवाय आपके मत मे और कुछ नही है तो यह भ्रान्ति या माया कहां से आ गई ? यदि कहें कि यह तो मन की भ्रमणा है तो मन की भ्रमणा और मन की शुद्धि ये कहाँ से आ गए, एक ही ब्रह्म होने के बावजूद ? यदि ये सव ब्रह्म (आत्मा) मे आए हैं, तब तो ब्रह्म एक और एकस्वरुप (नित्य) नहीं नहीं रह सका। इसलिए आत्मा परिणामी होते हुए भी नित्य माने विना कोई छुटकारा नही है। इतनी आपत्तियाँ होते हुए भी एकान्त नित्य मानेंगे तो आपके मत मे अविद्या (अज्ञान) का नाश करने के लिए जो वेदान्तविधिशेषत्व का उपयोग करते हैं, विधि भी वताते हैं । अगर ब्रह्म सदा नित्य ही हो तो उसमे अविद्या से जनित अशुद्धि को दूर करने की विधिशेषत्व की प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ? एकान्तनित्य आत्मा