________________
२६६
अध्यात्म-दर्णन
उससे आत्मसुख की हानि होती है । अत. गनार की मृलर प क्रियानो का परि त्याग करना चाहिये । मोहमगता के अधीन हो कर या मूग-निद्धान्त के आशय को छोड कर मनमानी देव-गुरु स्थापना, बना, निन्यायाण्ट को ले कर बने हुए गच्छ, या सम्प्रदाय के भेदो की पुष्टि के लिए आदेश-उपदेश करना तथा अपनी सुखमुविधा तथा भौतिक सुख व सम्मान के लिए तत्त्वचर्चा वरना आत्मार्थी के लिए शोभाम्प्रद नहीं है । आत्मधर्म की अपेक्षा ने रहित अगत्य वचनव्यवहार का त्याग करना चाहिए । नूनविन्द्ध प्रत्पण या भी त्याग करना आवश्यक है । साधारण जनता राग-रग के विषयो के प्रति लुब्ध हो कर सयम से त्रलिन हो तथा उसमे मिर्फ धन, पुत्र एव सागारिफ गुस की एपणा बढे, इस प्रकार के उत्सूत्रभाषण का त्याग करना चाहिए।
ये और इस प्रकार के उपदेश-वचनो का सार मुन कर जो इनसे हृदय में मादर्शरूप मे धारण करेंगे, उनया वार वार चिन्तन करेंगे, आदरवंश उनका अमल करके जो तन्मय बनेंगे, वे भव्य नर-नारी चिरकाल तवा दिटर- अद्वितीय चित्तसमाधिरूप , सानावेदनीय मुख का अनुभव करने आत्मगुण मे एकरम हो दर निश्चित ही मोक्ष मे जायेगे, यानी सच्चिदानन्दम्पप-मामपद में लीन हो जायेगे । निवर्प यह है कि परमात्मा की चरणमेवा का जो मूल प्रयोजन है, उसे ऐसे मुमुक्षु सिद्ध कर लेंगे।
श्रीआनन्दधनजी का वचन उत्तराध्ययन-मूत्र एव सिद्धान्त से पूर्णत सम्मत है कि पूर्वोक्त गाथाओ मे वताए हुए उपदेश के अनुसार चलने से छठे गुणस्थान मे रहे हुए साधक को कभी-कभी सानवा गुणस्थान प्राप्त होने से देवगति का आयुष्य बँध जाता है । वहाँ से दिव्यसुखो का अनुभव करने के बाद च्यव कर मनुष्यगति मे आ कर जाति आदि से समृद्ध कुल मे पैदा होता है, यहाँ उसे १० वोलो की प्राप्ति होती है । तदन्तर सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र और
तत्य ठिक्चा जहाठाण, जक्खा आउक्सए चुया । उति माणस जोणि, से दसगेऽभिजायए ॥१६॥ भुच्चा माणुस्सए भोए, अप्पडिरूपे अहाउय। पुव्व विसुद्धसद्धम्मे, केवल बोहि बुज्झिया॥१६॥ तवसा धम यकम्ते, सिद्ध हवइ सासए ॥२०॥