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________________ वीतराग परमात्मा की चरणसेवा २६७ तप, सवर एव भावनाओ के बल से ससार का उच्छेद करके मोक्ष प्राप्त कर लेता है। यानी जमन्य तीसरे भव मे, मध्यम पाच भव मे और उत्कृष्ट आठ भव मे तो उसका मुक्ति-परमात्मपद प्राप्त करना निश्चित है। . सारांश इस स्तुति मे प्रभु की चरणसेवा को तलवार की धार पर चलने से भी दुर्लभ बता कर बीच की गाथाओ मे उसके अनेक कारणो का उल्लेख किया है। यद्यपि परमात्मा की चरणसेवा का तात्पर्य तो शुद्ध आत्मस्वभावरमणरूप चारित्र की माधना मे है, अथवा व्यवहार से सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की आराधना से है, वि तु बीच मे जो भ्रातियाँ, अटपटी घाटियां, भय, प्रलोभन, स्वार्थ, लोभ आदि के रूप में रुकावटें या देवादि के प्रति श्रद्धा की स्खलना या विकृत श्रद्धा आदि विघ्नबाधाएँ आ जाती हैं, उनसे निपटना टेढी खीर है । इसलिए श्रीआनन्दधनजी, ने प्रत्येक मुमुक्षु साधक को सावधान रहने के लिए सच और साफ-साफ बातें कह दी हैं। और अन्त मे सच्चे माने मे प्रभुचरणसेवा का फल दिव्यसुख-प्राप्ति और अन्त मे मोक्षप्राप्ति बता दी है। ऐसी चरणसेवा परमात्मा के पास पहुँच कर ही की जा सकती है । परन्तु परमात्मा और आत्मा के बीच की दूरी है, उसे काटने के लिए धर्म की आराधना जरूरी है। इस बात को १५वे तीर्थकर धर्मनाथ की स्तुति के माध्यम से श्री आनन्दघत्तजी बताते हैं।
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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