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________________ ४६६ बाध्यात्म-दर्शन पुरुष) की कुक्षि ( उदर ) है । इस दर्शन के एक खास हिस्से पर यदि ध्यान से विचार किया जाय तो इस बात को नाशिक) सत्यता समझ में आ सकती है। लेकिन सद्गुर द्वारा प्रदत्त द्धि-ज्ञानशक्ति के विना तत्वज्ञानविचारस्पो अमृतरस को धारा का पान कैसे हो सकता है ? लोकायतिक को वीतराग को कुक्षि को उपमा क्यों ? लोकायतिक का अर्थ है - लोक मे विस्तृत- फैला हुमा दर्शन। इसे नास्तिक दर्शन या वृहम्पति-आचार्यप्रणीत चार्वाकदर्शन भी कहते हैं। क्योकि इस दर्शन वोले परलोक,स्वग-नरक, पुण्य पाप,धर्म-अधर्म,आत्मा-परमात्मा और बध-मोक्ष को नहीं मानते। वे तो यथाशक्ति इन्द्रियसुख भोग लेने में ही यानी वर्तमान पौद्गलिक सुखो को प्राप्त करने में ही जीवन की इतिथी मानते हैं। क्योकि चार्वाकदर्शन का मूलसूत्र है-'जब तक जीओ, सुख से जीओ, कर्ज करके घी पोओ। शीर को राख होने पर फिर पुनरागमन कहां?' वतमानयुग मे इन्हें भौतिकवादी ( Materialists) कह सकते हैं। इस प्रकार नास्तिकदशन वालो ने सिर्फ प्रत्यक्षप्रमाण को पकड लिया, अन्य प्रमाणो को छोड दिया। प्रत्यक्ष मे भी इन्द्रियार्थ प्रत्यक्ष को ही माना, आत्मप्रत्यक्ष प्रमाण को सर्वथा छोड़ दिया है' चार्वाकदर्शन पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश इन ५ भूतो को मानता है, और इनके सयोग से चेतनायुक्त प्राणी दिखाई देते हैं । आत्मा नाम का स्वतत्र कोई पदार्थ नहीं है। प्रश्न यह होता है कि चार्वाक जैसे नास्तिकदर्शन को श्रीआनन्दघनजी ने जिनवर के उदर का स्थान क्यो दिया ? यानी इमे जनतत्वज्ञानरूप कल्पवृक्ष का उदररूप अग क्यो माना ? इस शंका के समाधान के लिए हमे जरा तत्व की गहराई मे उतरना पड़ेगा। जैनदर्शन में पाच ज्ञान प्रमाण माने हैं-१ प्रत्यक्ष, २ परोक्ष, ३ आगम, ४उपमान, और ५अनुमान । इन पाच प्रमाणो से नयों का सत्यार्थ विवेचन है। "यावज्जीवेत, सुख जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमन कुत ।।"
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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