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वीतराग परमात्मा के चरण-उपासक
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दूसरी दृष्टि से देखें तो द्रव्यास्तिकनय जीवादि तत्व का प्रतिपादन करता है। पर्यायास्तिकनय जीवादि तत्व को अनन्तपर्याय से प्रतिादन करता है । द्रव्य और पर्याय पर समस्त लोकालोक का आधार है। १ द्रव्यास्तिकनय का आलम्बन अलोक (आकाशास्तिकाय) है, जबकि पर्यायास्तिकनय का आलम्बन लोक (पच्चास्तिकायात्मक ) है । अथवा लोक रूपीद्रव्यरूप होने से पर्यायाथिकनय का आलम्बन है, जबकि अलोक अरूपी होने से द्रव्याथिकनय का आलम्बन हुआ। इस दृष्टि से भेद का आलम्बन लोक और अभेद का आलम्बन अलोक हआ। अयवा लोक और अलोक के अवलम्बन के साथ श्रीआनन्दघनजी ने यह भी स्पष्ट कर दिया है - 'गुरुगमयो अवधारीए' अर्थात् तत्वज्ञानी को गुरुदेव की उपासना से इसका रहस्य समझ लेना चाहिए। ___'परमार्थ' के लेखक ने इस पर लिखा है---'ब्रह्मरन्ध्र से नीचे का भाग 'लोक' है और ब्रह्मरन्ध्र से ऊपर का भाग 'अनोक' है । इस प्रकार लोकालोक की कल्पना करके सालम्बन-निरालम्बन ध्यान सूचित किया गया है। रेचकपूरक-कुम्भक आदि क्रियापूर्वक किया गया ध्यान सालम्बन है, और निरालम्बन ध्यान का विषय गर्भ र एव वेदान्तदर्शन में प्रतिपादित होने से इसमे जहां समझ मे न आए, वहां ध्यान के अभ्यासी महान् योगी तत्वज्ञ गुरुदेव से जान (समझ) लेना चाहिए।
अब अगली गाथा मे चार्वाकदर्शन का समावेश जिनेश्वर के तत्वज्ञान के एक अग के रूप मे बताते हैं ।
लोकायतिक कूख जिनवरनी, अंशविचार जो कीजे रे। . तत्त्वविचार-सुधारसधारा गुरुगम-विरण किम पीजे रे ?
॥षड्०४॥
अर्थ नास्तिक बृहस्पति-प्रणीत चार्वाक (लोकायतिक) दर्शन वीतरागदेव (समय
१ इस विषय मे इस विषय के विशेष विद्वान् गुरु से अथवा जैनन्याय के
अनेकान्त-जयपताका, अनेककान्तमतव्यवस्था, स्याद्वादमजरी, स्यावादकल्पलता, आदि ग्रन्थो का अध्ययन करके समझ लेना चाहिए।