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वीतराग परमात्मा के चरण-उपासक
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चार्वाकदर्शन द्वारा इन्द्रियप्रत्यक्ष ( जैनदर्शनमान्य साव्यवहारिक प्रत्यक्ष) को स्वीकार करने के कारण उसे अशत जिनवर के उदर की उपमा दी।
शरीर मे पेट का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। वह सारे शरीर मे भोजन पहुंचाता है, विविध अगो को यथायोग्य भोजन पहुंचा कर शक्ति देता है, और मलहरणी नाडी द्वारा मल को धकेल देता है । उदर मे तो भोजन का अशभर ही शेष रहता है । इस दृष्टि से लोकायतिक दर्शन भी दुनिया मे अध्यात्मवाद के नाम पर ठगे गए, अथवा अध्यात्मवाद के नाम पर मचाई गई लूट के कारण ऊबे हुए लोगो को पेट की तरह अपने मे स्थान देता है, तथा उन्हें यह भी आश्वासन देना है कि परलोक का स्वर्ग नरक थोडी देर के लिए न मानो तो भी इहलोक मे जो कुछ प्रत्यक्ष गलत काम करोगे, उसका फल भी प्रत्यक्ष यही पर मिल जाएगा। परलोक मे नरक के डर से और स्वर्ग के प्रलोभन से जो टानादि धर्म या अहिंसादि पालन करते हो, वह भी उचित नहीं है, क्योकि भय
और प्रलोमन के कारण हटते ही या भय-प्रलोभन का विचार दिमाग से निकलते ही तुम अधर्म के कार्य करने पर उतारू हो जाओगे । इसलिए हम कहते हैं, समाज, परिवार, सघ या राष्ट्र की व्यवस्था सुचारूरूप से चलाए रखने के लिए विवेकयुक्त सस्कारो -प्रत्यक्षहृदय मे जमे हुए सुसस्कारो से प्रेरित हो कर धर्म या कर्तव्य, नीति या पथ्य (हितकर) वातो का पालन करो। जैसे पेट अपने पास कुछ भी न रख कर बिना किसी बदले की आशा से सारे अगो को दे देता है, वैसे ही तुम अपने पास अधिक न रख कर समाज, राष्ट्र आदि को नि स्वार्थभाव से दे दो। पेट शरीर के दूसरे अवयवो को सब कुछ देने पर जब खाली हो जाता है, तभी तो भोजन की रुचि जागती है, पेट में एक से अधिक दिन भोजन जमा पडा रहे तो कन्ज, अपच आदि अनेक रोग हो जाते हैं, वैसे ही जीवन मे त्याग न करने पर यानी परोक्षज्ञान आदि अधिक जमा होने पर विचारो का अजीर्ण, अहकार, सडान एवं परिग्रह हो जाता - है । अतः परोक्षज्ञान का सग्रह न करके लोकायतिक दर्शन प्रत्यक्षज्ञान पर ही दारोमदार रख कर परोक्ष विचारो को निकाल कर प्रत्यक्ष उपयोगी व्यवहारिक विचारो को रखता है, इसी कारण आध्यात्मिक विचारो की भूख जागती है। यह दर्शन अध्यात्मविचार के भोजन ...रुचि जगाता है। आज अमेरीका, जर्मन आदि भौतिकवादी देशो
सुखाभासो एव तजनित रोगो