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अध्यात्म-दर्शन
कुहनियो को पेट पर गाना। (२) जिनमुद्रा-गे गैः गाना बाग के भागो मे ४ अगुल का फाराना तथा पिरले भागोग गगे 'ग फासला रस कार सडा होना । (३) मुक्ताशुक्तिमुद्रा-बाय की अगुनियो को एक दूसरे में मनग्न किये बिना ही मोनो साथ चौटे मारने नलाट पर रखना।
(१०) प्रणिधानत्रिक-मन, वचन, काया-इन तीनो योगों का प्रणिधान (एकाग्रता) करना । अथवा 'जावत चेहयाई, जयंति के वि साई' व जय चोयराय ('आभवमखडा' तपः) इन तीन पाठो के उच्चारण के समय सावधान रहना भी प्रणिधाननिक कहलाता है।
इन दसो निको का द्रव्यपूजा के गमत्र पालन करने कार्य तो स्पष्ट है। भावपूजा के समय प्रभुमूर्ति के बजाय प्रभु की छवि को जन्तमन में कल्पना करके स्थापित करना तथा पूजायिका मे अगपूजा और अगपूना की भी भावरूप ही कल्पना करना अभीप्ट है। जैसे कि आचार्य हरिभद्रहरि ने पूजाष्टक मे आमा, गत्य, अस्तेय, मैथुनत्याग, मोह (ममत्त्व) वर्जन, गुरुपूजा, तप, और ज्ञान, इन्हे सत्पुप्प कहे हैं। इसी प्रकार धूप, दीप आदि के विषय में समझ लेना चाहिए।
इसके अतिरिक्त पूजाविधि मे देवगुरु के पास जाते गमय '. अभिगम (Rules of decent appronch) (वीतराग-परमात्मा के अनुरूप विशिष्ट मर्यादा) का पालन भी आवश्यक है। वे ५ अभिगमन प्रकार हैं--(१) पूजा करने जाते समय पूजा करने वाले के पास फूल, फल या वनस्पति आदि सजीव (मचित्त) वस्तुओ का त्याग करना, (२) छन, जूते, तलवार, मुकुट या कोई शस्त्र-लाठी आदि अभिमान या वैभव की मूचक या वैभव या मानव (जात्यादि) भेदभावमूचक चीजो का त्याग करना । वस्त्रालकार आदि उचित
१ पचविहेण अभिगमेण अभिगच्छति, त जहा-"सचिताण दवाणं विसरणयाए, अचित्ताण दव्वाण अविउसरणयाए, उत्तरासग-करणेण,
चवखफासे अंजलिपग्गण, मणसो एगत्तीकरणणं ।। -भगवतीसूत्र २ श्री ज्ञानविमलसूरि ने भी कहा है-देरामरजीमा प्रवेश करता जोडा,
(जूते) छत्र, चामर, मुकुट अने फूलहार विगेरे वहार मूकवा