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________________ परमात्मा की भावपूजानुलक्षी द्रव्यपूजा १८५ (४) पूजात्रिक-अगपूजा (जल, चदन, पुष्प आदि से पूजा), अग्रपूजा (धूप, दीप, अक्षत, फल व नैवेद्य आदि से पूजा) और भावपूजा (गीत, मगीत, भजन, स्तवन आदि के द्वारा चित्त एकाग करके परमात्मा का ध्यान करना) अथवा प्रकारान्तर से विघ्न-उपशामिनी, निवृत्तिदायिनी और अभ्युदयसाधिनी ये तीन पूजाएँ भी हैं, जो पूजात्रिक कहलाती है । (५) अवस्थात्रिक-परमात्मा के जीवन के पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपातीत इन तीनो अवस्थाओ की पूजा करते समय कल्पना करना अवस्थात्रिक है । तीर्थकर केवलज्ञान प्राप्त करें, उससे पहले की अवस्था को पिण्डस्थ, उनके सर्वजसर्वदर्शी होने के बाद की अवस्था को पदस्थ और वे समस्त कर्मों से मुक्त, सिह, बुद्ध हो जाय, उस समय की अवस्था को रूपातीत कहा जाता है । (६) त्रिदिशिनिवृत्त-दृष्टित्रिक-परमात्मा (या प्रभुमूर्ति) के सामने ही दृष्टि स्थापित करना। ऊर्द्धव (ऊंची) दिशा, अधो (नीची) दिशा तथा तिर्यग्दिशा (तिरछी दिशा) की ओर दृष्टि (नजर) न करना अथवा अपनी पीठ पीछे की दिशा, अपने दाहिनी ओर की दिशा व अपने वांई ओर की दिशा की ओर न देखना, नजर न फेरना-प्रदिशिनिवृत्त-दृष्टित्रिक कहलाता है। (७) भूमिप्रमार्जनत्रिक-प्रभु को पचाग प्रणाम करते समय, या वन्दन करते समय रजोहरण, प्रमानिका या उत्तरामन से तीन वार भूमि का प्रमार्जन (शुद्धि) करना। (८) आलम्बनविक—प्रभु के समीप वन्दन करते समय जिन सूत्रपाठो का उच्चारण किया जाय, उनमे हम्व, दीर्घ, पदसम्पदा आदि का ध्यान रखना वर्णालम्बन है, उक्त सूत्रपाठो के अर्थ पर विचार करना अर्थालम्बन है और परमात्मा या उनकी प्रतिकृति (प्रतिमा) मे-उनके गुणो का ध्यान करना प्रतिमालम्बन है, इस प्रकार के तीन आलम्बन है। __(8) मुद्रात्रिक-परमात्मपूजा करते समय तीन प्रकार की मुद्राएँ धारण की जाती है-(१) योगमुद्रा-हाथ की दसो उँगलियो को परस्पर एक दूसरे मे मलग्न करके कगल के डोडे की तरह दोनो हाथ रख कर, दोनो हाथ की
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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