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अध्यात्म-दर्शन
शब्द हैं । वास्तव मे ध्यान आत्मवीर्य की स्थिरता- एकाग्रता का नाम ही है। घ्यान केवल शरीर या मन की एकाग्रता ही नही, मुस्यतया आत्मा की स्थिरता है । शरीर, मन और पवन (श्वासोच्छ वास) की स्थिरता को उपचार से ध्यान कहा जाता है, पर वास्तव में ऐमा है नही। इसीलिए कहा गया है कि ध्यान (एकाग्रता) और विज्ञान से अपनी आत्मा में निहित वीरत्व या वीर्य की स्थिरता को व्यक्ति पहचान सकता है। ध्यान और विज्ञान की शक्ति पर से ही आत्मस्थिरता=मात्मशक्ति के सामश्य को जाना-परखा जा सकता है।
कई टीकाकार 'ध्र वपद' का अर्थ 'आत्मा का निश्चल स्थान' करते हैं, ऐसा अर्थ म्वीकार करने पर सगति इस प्रकार होगी-धर्मव्यान-शुवलध्यान से, विज्ञान विशिष्ट श्रु तज्ञानपूर्वक विवेक से एव शक्तिप्रमाण यानी सम्यग्दर्शन पूर्वक चारित्रवल के अनुपात मे अपनी आत्मा के ध्रवपद (स्थिरपद) को व्यक्ति पहचान सकता है।
अन्तिम गाया मे अपनी शक्ति (वीरता) को प्रगट करने का उल्लेख श्री मानन्दघनजी करते हैं
आलम्बन साधन जे त्यागे, परपरिणति ने भागे रे। अक्षय दर्शन ज्ञान वैरागे 'आनन्दघन' प्रभु जागे रे ॥वीर०७॥
अर्थ धर्मध्यानादि आलम्बनो, मन-वचन-काया के त्रियोगरूप साधनो या धर्मोपकरणादि साधनो का पूर्णवीरता प्राप्त करने वाले जो महात्मा त्याग कर देते हैं, मात्मा से भिन्न-अनात्म=पौद्गलिक भावो पर परिणति, अपवा परस्प= वैभाविक भाव मे परिणति जव भग=नष्ट हो जाती है अथवा साध्य प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक साधक अनेक अवलम्बनों (सामायिक-प्रतिक्रमणादि तपजपादि) तथा अनेक साधनों (साधुवेश, धर्मोपकरण, भिक्षाचर्यादि एव) परभावों में परिपति को अपनाता है, मगर ये सब आत्मबाह्य, परभाव, परावलम्बन, परसाधन, एवं परपरिणति आदि आखिरकार परवस्तु हैं, त्याज्य हैं, अत: इन्हे जो साधक . छोड़ देता है, दूर कर देता है, वह अक्षय(अविनाशी) दर्शन (केवलदर्शन), ज्ञान ,