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________________ परमात्मा से पूर्णवीरता की प्रार्थना ५४५ (केवलज्ञान). वैराग्य (क्षपक यथाख्यातचारित्र) होने पर वीतराग से आनन्दघन रूप प्रभु (परम समर्थ) बन कर जागृत रहता है, शैलेशी अवस्थारूप चारित्रमय रूप से सदा जागृत रहता है। उसकी ज्ञानज्योति जगमगाती रहती है। भाष्य पूर्णवीरता को प्राप्ति के लिए परवस्तु का त्याग अनिवार्य माधक को जब तक माध्य प्राप्त नहीं हो जाता, तब तक वह अनेक आलम्बनो और साधनो को अपनाता है, अनेक परभावो और परपरिणतियो को भी अगीकार करता है, कई महायको से सहायता लेता है, परन्तु ये मव चीजें, या आत्मा से अतिरिक्त जो भी साधन, मालम्बन या परिणति आदि है, वे मव मनुष्य मे परावलम्बिता बढाने वाले है, जितना-जितना दूमरो का सहारा, सहयोग, सहायता या साधन मनुण्य लेता है, उतना ही उतना वह अधिकाधिक दुर्वल होता जाता है, ज्ञान के मामले मे देखो, चाहे दर्शन के मामले मे अथवा चारित्र के मामले मे देखो, सर्वत्र पराश्रितता साधक के जीवन को मन-वचन-काया मे दुर्बल मन और बल से पराधीन, परमुखापेक्षी और परभाग्योपजीवी बना देता है। वीरता, शौर्य, पराक्रम, साहस, धैर्य और आत्मशक्ति को बढाने वाले के मार्ग मे तो ये मब बहुत ही अधिक बाधक वस्तुएं हैं। फिर तो मनुष्य ज्यो-ज्यो धन, सम्पत्ति, वस्त्र, उपकरण, भोजन, पेय, अथवा अन्य जो भो । मनोज, इप्ट और मनोहर पदार्थ देखता है, त्यो-त्यो उसके मन मे उसके पाने की लालसा जागती है, वह नही मिल जाता है, तब तक वेचैनी रहती है, मिल जाने पर कोई छीन लेता है या चुरा लेता है तो कष्ट होता है, वियोग होने पर दुःख होता है, इस प्रकार बहुत ही ममय, शक्ति, दिमाग, आदि इसमे (परवस्तुओ के पीछे) खर्च होता है। इसीलिए जिनेन्द्र भगवान् दूसरे को सहायता, सेवा और सहयोग की आकाक्षा या अपेक्षा नहीं रखते, वे अपने ही बलबूते पर साधना के आग्नेयपथ पर चलते हैं, जो भी कठिनाइयां आती हैं, उनमे जूझते हुए चलते हैं। मघर्ष से उनमे शक्ति प्रगट होती है। इसीलिए कहा है १ 'स्ववीय णव गच्छन्ति जिनेन्द्राः परम पदम् ।"
SR No.010743
Book TitleAdhyatma Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandghan, Nemichandmuni
PublisherVishva Vatsalya Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages571
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Worship
File Size21 MB
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