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परमात्मा से शान्ति के सम्बन्ध मे समाधान
समाधि में रत (लीन) हो जाता है । वहुत से साधक आगगो की बात तो दूर रही, सामान्य नीतिधर्म के जान से भी रहित होते है, वे सिर्फ वेपधारी या व्यमनी होते है।
सम्यक्त्ववान गुर-बहुत से लोग अक्षरज्ञान या भाषाज्ञान के पण्डित होते हैं, वे प्रत्येक शास्त्र की व्याख्या बहुत ही बारीकी से कर सकते है, परन्तु उनके अन्तर में सम्यग्दर्शन नहीं होता, वे या तो पैसा या प्रसिद्धि कमाने के लिए शास्त्रज्ञान करते-कराते हैं, या दूसरो के साथ साम्प्रदायिक सघर्प मे उतरने के लिए ऐसा करते हैं। ध्यान रहे, मिथ्याण्टि भी पूर्व से कुछ कम तक का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। अत गुर का सम्यग्दृष्टि होना वहत यावश्यक है । गुम मम्यग्दृष्टि होगा तो वह मिथ्यानो या पूर्वापरविरुद्ध वातो मे से भी अपनी ममन्वयी अनेकान्ती एव सापेक्ष दृष्टि मे तत्त्व निकाल लेगा , शास्त्रो, धर्मो, एव क्रियावाण्डो के कारण होने वाले झूठे सघर्षों को वह मिटा सकेगा , उनमे परस्पर सामजस्य स्थापित कर सकेगा। इस प्रकार सम्यक्त्वीगुरु पारस्परिक सघर्पो एवं विवादो को मिटा कर शान्ति स्थापित कर सकता है।
संवरनधान क्रियावान् गुरु-जो समिति-गुप्ति एव सवर मे युक्त क्रिया करता है, वह गुरु प्रत्येक क्रिया में ध्यान रखेगा कि वह ससारवृद्धि की कारण न हो । बहुत से गुरु अपनी महिमा बढाने के लिए मंसारवर्द्धक (आश्रवपोपक) क्रिया करते-कराते रहते हैं, उन क्रियाओ मे आत्मस्वरूप या कर्म-मुक्ति का लक्ष्य कम होता है, आडम्बर या शुभाश्रव का भाग ज्यादा होता है । इसलिए क्रियाविधिज्ञ एव सवरप्रधान (कर्मो को आते हुए रोकने की) क्रिया करने वाला होना चाहिए। अन्यथा, बहुत-से ऐसे गुरु होते हैं, जो आरम्भ-समारम्भ से ग्रथित सावद्य क्रियाकाण्डो के भवरजाल में स्वय भी फैसे रहते हैं, अनुयायियो को भी फँमा देते हैं। परन्तु क्रियावान गुरु प्रत्येक क्रिया मोक्षदायिनी करेगा, इहलोक-परलोकलक्षी नही, तथा उसके साथ उसे कर्तृत्व का अभिमान नहीं होगा, उसकी क्रिया स्वेच्छाचारी नही होगी, अपितु शास्त्रानुसार निरवद्य होगी। इस प्रकार की निरवद्य क्रिया करने कराने वाला गुरु ही शान्तिप्रदाता हो सकता है।